पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११६

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उत्तर में बानू तकिए के सहारे बैठ दिलीप के सिर पर हाथ फेरने लगी। दिलीप ने कहा, “समझ गया, आपने माफ कर दिया।” पर इसी समय उसे फिर उस मुख की याद आ गई, जिसे उसने होश में आने पर पहली बार देखा था। उसने आँख उठाकर चारों ओर देखा था। अनेक चेहरे थे, पर वह नहीं था। उसने फिर आँखें बन्द कर लीं। वह उसी मुख का ध्यान करने लगा। वह कौन था? इसी समय दो गर्म बूंदें उसके माथे पर गिरी। दिलीप ने आँख खोलकर देखा। बानू के आँसू ढरक रहे थे। उन आँसुओं को देख दिलीप की अन्तरात्मा जैसे कराह उठी। अपने कुकृत्य पर जैसे वह लज्जा और ग्लानि से दब गया। पर उसके मुँह से शब्द न निकले। किन्तु न जाने कहाँ से आँसू उसकी आँखों से भी ढरकने लगे। इतनी देर बाद डाक्टर ने कहा, “अब इसके पास भीड़भाड़ न करो। फोन कर दिया है। डाक्टर भटनागर आ रहे हैं। चोपड़ा भी हैं। वे देख लें तो प्रेस्क्रिपशन लिखा जाए।" फिर उन्होंने दिलीप को लक्ष्य करके कहा, “कुछ तकलीफ तो नहीं है दिलीप?" “सिर में बहुत दर्द है।" “ठीक है, अच्छा अब सब कोई यहाँ से जाओ, इसे आराम की बहुत ज़रूरत है। अब खतरे की कोई बात नहीं है।" इसी समय डाक्टर लोग आ गए। सब लोग कमरे से बाहर चले गए। सलाह-मशवरा करके नुस्खा लिखा। डाक्टरों के जाने पर अरुणा और डाक्टर ने उसका हाथ-मुँह साफ किया, थोड़ी गर्म कॉफी दी। ज़ख्मों पर मरहम-पट्टी की, और उसे आराम करने को कहकर चले गए। थोड़ी देर बाद दिलीप सो गया। बहुत देर तक सोता रहा। आँख खुली तो देखा वही मुख। उसी मुख ने कहा, “अब तबीयत कैसी है?" “अच्छी है।” दिलीप देर तक एकटक उसी मुख को देखता रहा, फिर एकाएक बिजली-सी उसकी आँखों में कौंध गई। उसने काँपते कण्ठ से कहा, “तुम!" मुख ने हँसकर कहा, “पहचान लिया?" "हूँ!” दिलीप ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पकड़ लिया। उस मुख की स्वामिनी ने हाथ नहीं खींचा-किन्तु कोमल-स्निग्ध स्वर से कहा, “कुछ चाहिए?" "नहीं।” दिलीप चुपचाप आँखें बन्द किए बहुत देर तक उन कोमल चम्पे की कली के समान उँगलियों को अपनी मुट्ठी में कसे चुपचाप पड़ा रहा। फिर उसने आहिस्ता से हाथ छोड़ दिया। आँखें खोलीं। पूछा, “कब आईं?" “आज पाँचवाँ दिन है।" "बाबूजी भी हैं?" “नहीं। आए थे पर चले गए। एक-दो ज़रूरी खून के मुकदमे थे।" “तुम नहीं गईं?" "करुणा ने नहीं जाने दिया।" कुछ देर दिलीप चुपचाप नीचे ताकता रहा। फिर बोला, “तुम्हें क्या मेरी बीमारी की खबर दी गई थी?" "हाँ।"