पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/११७

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"करुणा ने खत लिखा था?" “नहीं, तार दिया था।" "बाबूजी ने आपत्ति नहीं की, तुम्हें लेकर चले आए?" "आपत्ति की थी, पर मैं हठ करके चली आई।" “और अब?" "अब भी, वे तो छोड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन मैं रह गई।" "क्यों?" “करुणा ने ज़िद्द की, नहीं जाने दिया।" "बस, या और कुछ?" “और कुछ क्या?" दिलीप ने फिर उसकी कोमल उँगलियाँ मुट्ठी में कस लीं। फिर उसकी आँखों से आँखें मिलाकर कहा, “अपने मन से नहीं रहीं?" “मेरा भी मन था।" "अच्छा!” दिलीप ने फिर उसका मुँह देखा। मुँह से हँसी फूटी पड़ रही थी। कुछ रुककर दिलीप ने कहा, “तुम्हारा मन क्यों था भला?" “मेरा एक काम था-सोचा, उसे निपटाती चलूँ।" "कौन काम था?" “जब मैं पिछली बार आई थी, मैंने एक आदमी को एक घड़ी दी थी, उसी घड़ी की बात पूछनी थी।" "क्या बात पूछनी थी?" “कि घड़ी ठीक-ठीक चल भी रही है या ठप्प पड़ी है।" दिलीप ने जवाब नहीं दिया। आहिस्ता से उसका हाथ खींचकर अपने वक्षस्थल पर रख लिया। वक्ष पर उस हाथ को अपने हाथ से दबाकर कहा, “देखो ज़रा, घड़ी चल रही है या ठप्प पड़ी है।" और उस मुखर मुख की बोलती बन्द हो गई। उसकी फूटती हँसी भी गायब हो गई। उस पर प्रभात की अरुण आभा की भाँति लाली फैल गई। उन चम्पक उँगलियों में भी कम्पन होने लगा। उसने आहिस्ता से हाथ खींच लिया, और वह चुपचाप उठकर वहाँ से चली गई। और दिलीप जैसे विश्व की सम्पदा को अपने वक्ष में भरकर आनन्द और ऐश्वर्य में मग्न हो गया। 39 भरपूर नींद सो लेने पर दिलीप का मन बहुत हल्का हो गया। जब उसकी आँख खुली तो वह बहुत खुश था। वह उत्फुल्ल मुख और कोमल उँगलियाँ उसके अन्तस्तल में स्पन्दन कर रही थीं। इसी समय दरवाजे पर खटका सुनकर उसने उधर आँख उठाई, आशा और