पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/३३

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दोपहर हो गई थी और नवाब साहब हाकिम साहब को उनकी कोठी पर छोड़ने गए तो दस्तरखान में शरीक हो गए। खाना खा चुके तो आराम-कुर्सी पर ऊँघने लगे। हाकिम साहब ने माफी माँगकर कहा, “आप आराम फर्माइए। मैं ज़रा-सा कार-सरकार निपटा लूँ।” और वे चले गए। खिदमतगार सुगन्धित सिगरेटों का डिब्बा और पान की तश्तरियाँ रख गया। नवाब साहब कभी ऊँघते, कभी आँखें खोलकर सिगरेट का कश खींचते। खिदमतगार वापस जा रहा था। नवाब ने कहा, “मियाँ ज़रा इधर आना।” नौकर हाथ बाँधकर पास आ खड़ा हुआ। नवाब ने एक दस रुपए का नोट निकालकर उसकी हथेली पर रखते हुए कहा, “मियाँ, बाहर हमारी मोटर खड़ी है। ड्राइवर और सिपाही दोनों बेवकूफ हैं, ज़रा आते-जाते नज़र रखो। लड़के-बच्चे शरारती होते हैं; मोटर से छेड़छाड़ न करें।”

“बहुत अच्छा, हुज़ूर।” नौकर ने झुककर सलाम किया, नोट जेब में खोंसा और लम्बा हुआ। नवाब फिर पीनक लेने लगे!

एक दूसरा नौकर फिर उधर आ निकला। पैर की आहट पाकर आपने आँखें खोलीं, पुकारा, “मियाँ!”

नौकर ने सलाम किया। एक दस रुपए का नोट उसकी ओर बढ़ाकर कहा, “सिगरेट लाना ज़रा।” “हुज़ूर, सिगरेट तो हाज़िर है।" उसने नोट हाथ में लेते हुए एक सिगरेट डिब्बे से निकालकर दियासलाई जलाते हुए कहा।

“तो इसे तुम रख लो। हाँ, ज़रा देखो, हमारा ड्राइवर सो तो नहीं गया।” “बहुत अच्छा, हुज़ूर।” खिदमतगार चला गया। नवाब सिगरेट फूंकते और राख की ढेरी करते रहे। झपकी लेते रहे। शेरवानी कसे, और नवाबी शान रखते हुए।

नवाब साहब की मुलाकातें ऐसी ही ग्राण्डील होती थीं―लम्बी और ठण्डी। जो उनकी तबीयत को जानते थे, उनके सोने-ऊँघने, चाय-नाश्ता, पान-सिगरेट का पूरा बन्दोबस्त करके अपने काम में लगते थे। यह ज़रूरी न था कि वे तमाम दिन नवाब साहब के पास बैठे रहें। नवाब को भी इसकी शिकायत न थी ।

शाम हुई और नवाब हाकिम साहब से विदा हुए। सिनेमा चलने का इशारा किया। मान लिया जाता तो बारह बज जाते, बिना डबल शो देखे नवाब का दिल भरता न था। मगर हाकिम साहब ने चाय पिला-पिलूकर उन्हें विदा किया। और अब बारी आई नई दुलहिन हुस्नबानू के महल में जाने की। चिराग जल चुके थे जब नवाब ने हुस्नबानू की ड्योढ़ी लाँघी। पहरे के सिपाहियों ने सलामी दी। नवाब ने मोटर में बैठे ही बैठे कहा, “इत्तिला करो। "

“इत्तिला ही है हुज़ूर। सरकार का हुक्म है कि हुज़ूर को आने दिया जाए–इत्तिला की मुतलक ज़रूरत नहीं।” “ताहम, तुम लोग होशियार रहो। ” वहीं से मोटर से उतरकर नवाब पैदल ही रौश पार करते हुए महल तक आ पहुँचे। द्वार पर मिली महरी। पुरानी थी। हुस्नबानू की खिदमत में लगा दी गई थी। नवाब ने कहा,