पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६१

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है?" “मैं तो ऐसा ही समझता हूँ, बाबूजी!" "और यह भी समझते हो कि तुम्हारे हिन्दू धर्म में सारी ही स्त्रियाँ सीता-सावित्री हैं, जबकि पाश्चात्य समाज में सभी सूर्पनखा हैं?" दिलीप ने जवाब नहीं दिया। उसने देखा-रायसाहब क्रुद्ध हो रहे हैं। वह रायसाहब के सामने अविनय नहीं कर सकता था। वह देर तक मुँह नीचा किए बैठा रहा। रायसाहब ने कहा, “जवाब दो।" "बाबूजी, मुझे आप क्षमा कीजिए। मैं अविनय नहीं कर सकता। पर मैं अपने विचारों से लाचार हूँ।" "तो यह तुम्हारा अन्तिम निर्णय है या कुछ सोच-विचार भी करना चाहते हो?" “जी सोचने जैसी तो कोई बात नहीं है।" “व्यक्तिगत बातें भी कुछ महत्त्व रखती हैं। मेरी माया पाश्चात्य वातावरण में पली ज़रूर है, पर उसका जैसा शील, सदाचार है उस पर मुझे गर्व है।" "हो सकता है, पर और तो कुछ बातें हैं बाबूजी!" “और क्या बात है?" “सामाजिक मर्यादा की। जात-बिरादरी की। मैं उन सबसे बाहर नहीं हो सकता।" "ओफ, यहाँ तक?” राय साहब का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। कुछ ठहरकर उन्होंने उठते हुए कहा, “अच्छा, खुश रहो।” और वे कमरे से बाहर चले गए। 18 दिलीप को ऐसे प्रतीत हुआ जैसे किसी ने बड़े ज़ोर से उसकी पीठ पर चाबुक दे मारा। वह हक्का-बक्का-सा खड़ा रह गया। जो बात उसके मुँह से निकल गई उसको पीछे लौटाने का कोई उपाय न था। उसने स्पष्ट ही देखा-बहुत खराब, बहुत ओछी बात वह कह गया है। एक भद्रपुरुष का उसने अपमान-घोर अपमान कर डाला है। राय राधाकृष्ण साधारण आदमी न थे, बड़े भारी प्रतिष्ठित पुरुष और नामी बैरिस्टर थे; बुजुर्ग थे। आकर उन्होंने दिलीप से बड़े प्रेम और ममता से बातें की थीं। उनके साथ ऐसा अभद्र व्यवहार? फिर वे तो इस समय उसके पिता के स्थानापन्न सम्मान्य अतिथि थे। दिलीप जैसे सुशिक्षित तरुण को तो ऐसा न करना चाहिए था। अपनी इतनी बड़ी भूल उसे न दिखे ऐसा अन्धा तो वह था नहीं। वह एक प्रगतिशील तरुण है। विचार अवश्य उसके प्राचीनता के पोषक हैं पर वह मूढ़ नहीं है। और सब बात ठीक, पर जात-बिरादरी की बात ऐसे भद्दे ढंग से कह जाना-जबकि वह जानता था कि विलायत जाने के कारण रायसाहब को बहुत दिन से बिरादरी ने च्युत किया हुआ है-बहुत ही खराब बात हुई। रायसाहब को सचमुच यह बात आहत कर गई। उन्हें दिलीप से इतनी संकुचित वृत्ति की आशा न थी। पर तीर तो हाथ से छूट चुका था। अब क्या किया जाए? बार-बार उसका मन होता