पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६४

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" 93 “ठहरिए, सुनिए!" “कहिए।" “यह घड़ी आप-आप ले जाइए। “ममी ने आपके लिए भेजी है। इसे आप वापस कर रहे हैं?" “ममी से कहिए.. "...कि घड़ी आपको पसन्द नहीं है, ज़रा और बढ़िया-सी...” माया एक कटाक्ष फेंककर मुस्करा दी। इस समय भी उसका स्वर सूखा था-आँखें सूनी थीं। पर दिलीप ने इतना रस, इतना माधुर्य अब तक जीवन में कभी देखा ही न था। दिलीप ने जवाब की राह न पाकर कहा, “नहीं, नहीं, यह बात नहीं है।" "तो मैं ममी से क्या कहूँ?” “मेरा प्रणाम कहिए, चरण-स्पर्श कर दीजिए।" माया ने हँसी रोककर कहा, “मेरे चरण-स्पर्श करने से क्या होगा भला! आप ही कभी आकर चरण-स्पर्श कर लीजिए, प्रणाम मैं कह दूंगी। अच्छा नमस्कार।" वह मुड़ी। परन्तु दिलीप ने फिर बाधा देकर कहा, “सुनिए तो!" “कहिए भी, आपका समय नष्ट हो रहा है।" “ममी को मेरा प्रणाम कहकर और चरण-स्पर्श करके कहिए-यह घड़ी मैं नहीं रख सकता।" “ममी पूछेगी, क्यों नहीं रख सकते, तो क्या जवाब दूं?" "जैसा ठीक समझिए।' "तो कह दूँ कि घड़ी पसन्द नहीं है और बढ़िया मँगाई है?" “नहीं, नहीं।" "तब?" “मैं रख नहीं सकता।" “किन्तु कारण क्या?” “कारण कुछ नहीं।" “तब आप स्वयं ही कभी उन्हें मिलकर लौटा दीजिए। अकारण तो मैं लौटाकर ले नहीं जाऊँगी।" वह फिर चलने लगी। दिलीप ने फिर बाधा देकर कहा- "आप समझती नहीं हैं।" “यानी मैं कूढ़मग्ज़ हूँ।” “वाह, यह भी कोई बात है!" "तो आप समझाना नहीं चाहते।" "नहीं, नहीं, पर यह अनुचित है।" “क्या? ममी ने प्यार से आपको एक उपहार भेजा है-उसे आदरपूर्वक ग्रहण करना अनुचित है, यही शायद आपकी हिन्दू संस्कृति है?" "परन्तु... “मैं अपना काम कर चुकी। एक फालतू काम ममी ने झूठमूठ मेरे सिर मढ़ दिया। अब "