पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/६६

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वह तो सांगोपांग उसे अपना आत्मार्पण करने ही आई थी। संभवत: वह आत्मार्पण कर भी गई है। रायसाहब और डाक्टर दोनों ही उसके प्रति सानुनय हो चुके हैं। माया की प्राप्ति में तो वह स्वयं ही अपनी माया है। एक बार भी उसके मन में यह ज्ञान न हुआ कि वह अभी अरुणा से, करुणा से, माया से, पिता से, माया के पिता से किसी से भी जाकर कह दे कि मेरे मन की सारी बाधाएँ हट गई हैं, सब व्यवधान दूर हो गए हैं। हवाई किले सब ढह चुके हैं। अब माया मेरे प्राणों में आ बसी है। लाओ-माया को मुझे दो! प्राणों में उसका लय होने दो! यद्यपि उसकी वह धर्ममूढ़ता, अति तुच्छ, नगण्य बन चुकी थी-पर वह जो उसका दर्प था-अहं-तत्त्व था-वह उसके आहत आर्त हृदय पर तनिक भी सदय न था। न, न, वह अब 'हाँ' कह भी सकता है, यह भावना भी उसके प्राणों की चेतना में नहीं थी। जैसे करोड़ों बलिष्ठ हाथों ने आकर उसका मुँह बन्द कर दिया था। अँधेरा हो गया, दिए-बत्ती जल गए, पर दिलीप को इसका कुछ भी भान नहीं हुआ। वह उसी भाँति अँधेरे में पड़ा रहा। किस नए रोग में वह आज इस समय एकाएक ग्रस्त हो गया था-उसका निदान वह नहीं जानता था। परन्तु जब घर के नौकर ने कमरे में आकर बत्ती जलाई और देखा-बाबू सो रहे हैं, तब उसने पास आकर स्नेह से पूछा, “तबीयत खराब है क्या बाबू, माँजी से कह दूँ?" तब दिलीप कुछ भी जवाब नहीं दे सका। नौकर ने कुछ कहा है, यह तो उसने सुना। पर क्या कहा, यह नहीं सुना। वह नौकर को कुछ जवाब न देकर करवट बदलकर सो रहा। पर अब वह सो भी न सका। नौकर के जाते ही वह तड़पकर उठा और एकदम घर से बाहर हो लिया। ज्वराक्रान्त की भाँति उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। पर वह बढ़ा जा रहा था। आप ही आप। वह अपने पूर्वाभ्यासवश जमुना-तीर पर जा पहुँचा। एक-दो परिचितों ने उसे टोका भी, पर उसने सुना ही नहीं। वह किनारे ही किनारे दूर तक चला गया। गहरी अँधेरी रात थी। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। जमुना-किनारे ऊँची-ऊँची घास में झींगुर बोल रहे थे। दूर नगर की बिजली की बत्तियां टिमटिमा रही थीं, और सन्नाटे के आलम में वह एक उन्मत्त, मदमत्त, विवश आदमी की भाँति बढ़ा जा रहा था। वास्तव में उसे अपने तन- बदन की सुध न थी। किन्तु आगे राह न थी। गहन अन्धकार में जमुना-तीर का वह सघन जंगल जैसे और भी सघन हो उठा था। उसे रुकना पड़ा। अपने चारों ओर उसने देखा, यत्किंचित् उसने सोचा-वह कहाँ आ गया है। ज़रा-सी चेतना उसे हुई-वह लौटा। पर चेतना के उस क्षीण आलोक के सहारे से वह सोच सका कि उसका जीवन अब समाप्त हो गया है। और जैसे, वह अपने-आपका एक भस्मीभूत पुतला है। फिर घाट आ गए थे। घाट के किनारे-किनारे वह धीरे-धीरे चलता रहा। जमुना का श्याम जल धीरे-धीरे बहा जा रहा था। आकाश में वही तारे टिमटिमा रहे थे-कहीं-कहीं उनकी काँपती हुई परछाईं जल में दिख रही थी। एकाध बादल का टुकड़ा आकाश में घूम रहा था। वह एक सुपरिचित घाट पर बैठ गया। वह सोचने लगा यह हो क्या गया। माया तो उसकी कुछ भी नहीं। उसका उस पर कुछ अधिकार भी न था। फिर क्यों वह ऐसा समझ रहा है कि वह लुट गया। जब उसकी गाँठ में कुछ था ही नहीं तो लुटा क्या है? नहीं लुटा है तो वह आज इस समय ऐसा निरीह, असहाय, एकाकी कैसे हो गया है? अब तक क्या था