पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/८०

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रहे हैं। कलियुग, अन्धकार का जो युग था, आज वह खत्म हो रहा है। देश का तरुण-मण्डल अग्निस्फुलिंग के समान पुराने झोंपड़े को ढहाकर नए महल का निर्माण कर रहा है। इस नवीन सन्तति ने जिस काम का बीड़ा उठाया है उसे वह बिना पूरा किए शान्त न होगी। हमारा राष्ट्रीय संघ वही अजेय संगठन है। हमारी इस नवीनता में भी प्राचीनता का प्रभाव है। मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि भारत जब स्वतन्त्र होगा उसकी यही विशेषता उसे संसार के राष्ट्रों का शिरोमणि बनाएगी।" सभा में मर्मर-ध्वनि उठी। दिलीप ने कुछ रुककर कहा, “अंग्रेजो, तुमने भारत को पराधीन किया है। पर किस उद्देश्य से? कि तुम उसके बदले में गहरा हाथ मारो? तुम हमें धर्म-स्वतान्त्र्य देने की बात कहते हो, पर अपने धर्म पर तुम्हें खुद आस्था नहीं है; न तुम्हारे भाव धर्म को छू गए हैं। तुम धर्म को एक व्यर्थ ढोंग समझकर तुच्छ जानते हो। भारत के विशाल मैदान में धर्म के झगड़ों में पड़ने से तुम डरते भी थे। इन झगड़ों के कठिन परिणामों से तुम सावधान थे। इसी से धर्म में आड़ न लगाई। मगर तुमने ब्रह्मधर्म को उत्तेजन दिया। किसलिए तुमने मिशनरियों को अपना सगा समझा था? तुम्हारे राज्य में हिन्दू लड़कों को और लड़कियों को क्यों बाइबल ज़बर्दस्ती पढ़ाई जाती है? इन सब चालों को हम समझते हैं। फिर दार्शनिक हिन्दुओं और कट्टर मुसलमानों को धर्म सिखाना टेढ़ी खीर था। तुम्हें बैर भड़क उठने का भय था। तुमने मैसूर और ग्वालियर स्वतन्त्र किए, इसलिए कि इन टुकड़ों को डालकर दूसरों का भौंकना बन्द करें।" सारी सभा उन्मत्त हो उठी। लोग हाथ उठा-उठाकर कहने लगे, “चले जाओ अंग्रेज़ों, हिन्दुस्तान छोड़ दो! तुम खूनी हो-डाकू हो!" दिलीप ने शान्त होकर कहा : “और आज? समय का चक्र घूम गया है। यूरोप की लाश सिसक रही है।ढह गया तुम्हारा साम्राज्य! अंग्रेज़ों,अपनी खैर मनाओ और यहाँ से चले जाओ!" अभी दिलीप के मुँह से ये शब्द निकले ही थे कि धड़ाम-धड़ाम चारों ओर 'त्राहि-त्राहि' होने लगी। सैकड़ों आदमी घायल होकर तड़पने लगे। खून के फव्वारे चलने लगे। सभा-भवन में भगदड़, हाहाकार मच गया। सारा ही सभास्थल पुलिस और सेना ने घेर लिया था। जो मर गए थे, वे औंधे मुँह पड़े थे। जो ज़िन्दा थे वे सिसक रहे थे। जो घायल होने से बचे थे उन्हें पुलिस के यमदूत पकड़ रहे थे, पकड़े हुए लोगों का अग्रदूत बनकर दिलीप पुलिस की लारी में जा बैठा। 27 शिशिर को पाकर दिलीप को प्रसन्नता हुई। उन दिनों जेलें अन्धाधुन्ध भरी हुई थीं। छोटे-बड़े नेता चारों ओर से जेल में लूंसे जा रहे थे। दमन और अत्याचारों के दौर से जेलें भी मुक्त न थीं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे देश का तारुण्य जाग उठा हो। उन वेदनाओं और कष्टों की किसी को चिन्ता ही न थी।