पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/८२

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यह एक विशाल तहखाना था इसमें सूर्य का प्रकाश भी न जा पाता था। रात-दिन घोर अन्धकार रहता था। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होने को आधे घण्टे के लिए जब कैदी निकाले जाते तब उन्हें सूर्य के प्रकाश और खुली वायु की प्राप्ति होती थी। इसके बाद डंडे-बेड़ी और हथकड़ियों में कसे उन्हें उसी अन्धकूप में पड़ा रहना पड़ता था। भोजन भी उन्हें वहीं मिल जाता था। इस अन्धकूप में जाकर उसने देखा, कुल बाइस कैदी हैं, जिनमें दो को छोड़कर सभी तरुण थे। उन दोनों में एक किसी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे। दूसरे पंजाब के प्रसिद्ध डाक्टर थे। रात को यक्ष, गन्धर्व, किन्नर जो अन्तरिक्ष-गान करते थे उसका भी भेद खुल गया। वह नाद-ध्वनि यहीं, इसी तहखाने से उठती थी। वीणा, मुरज, मृदंग के स्थान पर अपनी हथकड़ी-बेड़ियाँ बजाते थे। वे सब के सब एकप्राण थे। सभी राजनीतिक बन्दी थे। तोड़-फोड़ के, लूट और हत्या के, अग्निदाह के गम्भीर आरोप उन पर थे। परन्तु जैसे वे दुनिया भर के बेफिकरे थे। चिन्ता और शोक उनसे कोसों दूर थे। वे हँसते, मज़ाक करते, कहकहे उड़ाते, कविता करते, तान- अलाप उड़ाते और किसी भी बाधा को न मान शाही तरीके से रहते थे। दोनों बुजुर्गों को वे अपना मुरब्बी मान रहे थे। हँसना तो उनके साथ उन्हें भी पड़ता था, परन्तु वे ज़रा गम्भीर थे। पर इन तरुणों के प्रति उनके प्रेम की थाह न थी। दिलीप के पहुँचते ही प्रत्येक ने उसे छाती से लगाया, पेशानी चूमी और कहा, “आज हमारा और एक भाई पैदा हुआ। इस खुशी में अभी एक जलसा होना चाहिए।" और जलसे का जब रंग जमा तो उस मस्ती, बेफिकरी और आनन्द की लहर में दिलीप विभोर हो गया। उसकी आँखों से आँसू निकल आए, और जब उसका भोजन आया तब जिस भोजन के प्रश्न को उसने अपनी धर्मनिष्ठा समझा था, डण्डा-बेड़ी सहीं, यातनाएँ भोगी, भूख-हड़ताल की, उसे यहाँ स्थिर न रख सका। उसने स्नेह-गद्गद कण्ठ से कहा, "भाइयो, एक निष्ठावान् हिन्दू हूँ। और अपने विश्वास के अनुसार छुआछूत का ध्यान रखता हूँ। यह मेरे जन्मजात संस्कार हैं। इनके लिए दिल्ली जेल में मैंने प्राणों की बाज़ी लगा दी थी। यहाँ भी तो आते ही इसी बात पर अड़ गया था, परन्तु अब मैं आपसे अलग नहीं हो सकता। मेरी अब अलग बिरादरी-जातपाँत नहीं कायम रह सकती। अब मैं तो आपके साथ हूँ। आपका छोटा भाई हूँ।" सब लोग 'हुर्रा-हुर्रा' कहकर चिल्ला उठे। और एक बार बेड़ियों से डंडों पर हथकड़ियों की नपी-तुली चोटें पड़ने लगी। कैदियों में एक तरुण का नाम था-प्रकाशचन्द्र। लम्बा, दुबला-पतला, निरीह-सा आदमी-स्त्रियों जैसी भीरु आँखें, सुन्दर लाल होंठ, मृदु और कोमल ठोड़ी; कण्ठ-स्वर में वह माधुरी और लोच था कि वाह! उसने अलाप लिया, "आज मोरे अँगना में खेलते लाल! रुन-झुन, रुन-झुन...” दिलीप की आँखों से आँसू बरस उठे-झर-झर, झर-झर। बेड़ियों पर सचोट ताल बैठ रही थी। प्यार और मस्ती झूम रही थी। दिलीप विभोर हो बैठा रहा, देर तक अपने ही आँसुओं के मुँह में भीगा, सराबोर। और इस प्रकार यह दारुण यातना की घड़ियाँ उन तरुणों के साथ कोमलतम रूप धारण करके बीतती चली जा रही थीं। परन्तु दिलीप का एक वैशिष्ट्य तो था ही, वह छिपा न रहा। दो ही दिन में वह उस मस्त तरुणमण्डली का नेता बन गया। धीरे-धीरे उसने उनके मन में हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान की आग सुलगा दी। सभी तरुण देशभक्त थे। कुछ कांग्रेसी अवश्य थे, पर अधिक राष्ट्रीय संघी ही थे। वे भी एक ही स्वर से दिलीप को अपना