पृष्ठ:धर्म्म पुस्तक.pdf/१०२

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उत्पनि [४३ पर्व १६ । तब उन्हो ने यूमुफ के घर के प्रधान पास आके घर के द्वार पर उस्मे बात चीत किई ॥ २०॥ और कहा कि महाशय हम निश्चय पहिले बेर अन्न मोल लेने आये थे। २१ । तो यों हुआ कि जब हम ने टिकाश्रय पर उतरके अपने बोरों को खोला तो क्या देखते हैं कि हर जन का रो- कड़ उस के बोरों के मुंह पर है हमारा रोकड़ सब पूरा था सा हम उसे अपने हाथ में फिर लाये हैं ॥ २२। और अन्न लेने को और हम रोकड़ अपने हाथों में लाये हैं और हम नहीं जानते कि हमारा रोकड़ किस ने हमारे बारे में रख दिया ।। २३ । तब उस ने कहा कि तुम्हारा कुशल होवे मत डरो तुम्हारे ईश्वर और तुम्हारे पिता के ईश्नर ने तुम्हारे बोरों में तुम्हें धन दिया है तुम्हारा रोकड़ मुझो मिल चुका फिर बुह ममऊन को उन पास निकाल लाया। २४ । और उस जन ने उन्हें य सुफ के घर में लाके पानी दिया और उन्हों ने अपने चरण धेाये और उम ने उन के गदहों को दानर घास दिया॥ २५ । फिर उन्हों ने दो पहर को यूसुफ के आने पर भेंट सिद्ध किया क्योकि उन्हों ने सुना था कि हमें भोजन यहीं खाना है॥ २६। और जब यूसुफ घर आया तो वे अपने हाथ की उम भेंट को भीतर लाये और उस के आगे भूमि ला दंडवत किई॥ २७। और उस ने उन से कुशल क्षेम पूछा और कहा कि तुम्हारा पिता कुशल से है बुह हड्ड जिम की चर्चा तुम ने किई थी अब लो जीता है ॥ २८। और उन्हों ने उत्तर दिया कि आप का सेवक हमारा पिता कुशल से है अब लो जीता है फिर उन्हों ने सिर झुकाके दंडवत किई ॥ २६ । फिर उस ने अपनी आँखें उठाई और अपनी माता के बेटे अपने भाई विनयभीन को देखा और कहा कि तुम्हारा छटका भाई जिस की चची तुम ने मुझ से किई थी यही है फिर कहा कि हे मेरे बेटे ईश्वर तुझ पर दयान रहे ॥ ३० । तव यमुफ ने उतावली किई क्योंकि उस का जी अपने भाई के लिये भर आया और रोने चाहा और बुह कोठरी में गया और वहां रोया ॥ ३१। फिर उस ने अपना मुंह धाया और बाहर निकला और आप को रोका और श्राज्ञा किई कि भोजन परोसे। ३२ । तब उन्होंने उस के लिये अलग और उन के लिये अलग और मिक्षियों के लिये जो उस के संग खाते वे अलग परोसा इस लिये कि मिखी