पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१२१

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कर न केवल उसे विवाह पर राजी करें, प्रत्युत तुरन्त ही उसका कौमार्य भी नष्ट करदे। और फिर उसके पहिचानने से भी इन्कार करदे।

द्रौपदी सीता और दमयन्ती आदि के स्वयंवरों की चर्चा भी हमें प्राचीन पुस्तकों में मिलती हैं। परन्तु वे नाम मात्र के स्वयम्वर थे। सभी में पिता की एक शर्त थी, उसे पालन करके कोई भी वर उस कन्या को प्राप्त कर सकता था। यदि रावण और वाणासुर जनक के धनुष को चढ़ा पाते तो वे अवश्य ही सीता को प्राप्त करने के अधिकारी हो सकते थे। चाहे सीता उन्हें प्रेम न कर सकती।

स्त्रियों की बिना रुचि जाने, उनको अपने जीवन पर विचार करने का अवसर बिना दिये पुरुषों का स्वेच्छा से उनका विवाह कर देना यह स्त्री जाति मात्र का घोर अपमान है। और इस कुकर्म ने हिन्दू जाति की स्त्रियों के सब सामाजिक अधिकार छीन लिये, उन्हें निरीह पशु के समान बना दिया। इसी कन्यादान की प्रथा के कारण पति की सम्पत्ति में उनका कुछ भी अधिकार नहीं। विधवा होने पर वे केवल रोटी कपड़ा पा सकती हैं, मानों वे घर की कोई बूढ़ी निकम्मी गाय भैंस हैं। संसार की किसी भी सभ्य देश की स्त्री विवाह होने पर हिन्दू स्त्री की भाँति बेबस नहीं हो जाती। इसका कारण यही है कि वह दान की हुई वस्तु है। और उसके प्राण आत्मा और शरीर पर उसके पति का पूर्णाधिकार है।