पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(१४८)

मूर्त्ति को देखा। वह लिखता है:—

"प्रति वर्ष दूसरे मास के आठवें दिन मूर्त्तियों की एक यात्रा निकलती है, इस अवसर पर लोग एक चार पहिये का रथ बनवाते हैं और उस पर बांसों का ठाठ बांधकर पांच खण्ड का बनातें हैं उसके बीच में एक खम्भा रखते हैं जो तीन फल वाले भाले की भाँति होता है। और ऊँचाई में २२ फीट या इस से अधिक होता है। और एक मन्दिर की भांति दीख पड़ता है। तब वे सफेद मलमल से उसे ढकते हैं। और चटकीले रङ्गों से रङ्गते हैं। फिर देवों की चाँदी सोने की मूर्त्तियाँ बना कर चाँदी सोने और काँच से आभूषित करके कामदार रेशमी चन्दुए के नीचे बैठाते हैं। रथ के चारों कोनों पर वे ताख बनाते और उन में बुद्ध की बैठी मूर्त्तियाँ जिन की सेवा में एक बोधिसत्व खड़ा रहता है—बनाते हैं। ऐसे ऐसे बीस रथ बनाए जाते हैं। इस यात्रा के दिन बहुत से गृहस्थ और सन्यासी एकत्रित होते हैं। जब वे फूल और धूप चढ़ाते हैं तो बाजा बजता है और खेल होता है। श्रमण लोग पूजा को आते हैं। तब बौद्ध एक एक करके नगर में प्रवेश करते हैं। और वहाँ वे ठहरते हैं। तब रात भर रोशनी करते हैं। गाना और खेल होता है। पूजा होती है...।"

यहाँ से यह यात्री राजगृही, गया, काशी, कौशाम्बी और चम्पा तक पहुँचा जो पूर्वी बिहार की राजधानी थी। परन्तु उस ने कहीं भी एक भी मन्दिर हिन्दुओं का इन तीर्थों में नहीं देखा, सर्वत्र बौद्धों के सङ्घाराम देखे। फिर वह ताम्रपल्ली गया वहाँ भी