पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१५

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बन जाती। अब मैं पूंछता हूँ कि यहां छल करके कृष्ण ने अधर्म किया या नहीं।

हिंसा की बात भी विचारनी चाहिये। मैं एक चींटी को मार कर हत्यारा कहाता हूँ, परन्तु एक सिपाही असंख्य मनुष्यों का वध करके भी वीर कहाता है। क्यों? युद्ध में भी तो हत्या होती है, ऐसी हत्याऐं करने वाले पापी अधार्मिक क्यों नहीं।

इसी प्रकार प्रत्येक लक्षण को हम यदि कसौटी पर कसें तो हम धर्म के इन दश लक्षणों पर निर्भर नहीं रह सकते।

दर्शन-शास्त्र बताते हैं "यतो अभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धि सधर्मः" जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस दोनों की प्राप्ति हो वही धर्म है। अभ्युदय का अर्थ है ऐहिलौकिक सर्वोच्च सुख, जिस में सब प्रकार की व्यक्तिगत और सामूहिक स्वाधीनता अधिकार प्रणाली, जीवन तारतम्य की धाराएं आगई। निःश्रेयस का अर्थ है—पारलौकिक सर्वोच्च स्थिति, अर्थात् मुक्ति। मुक्ति का अर्थ यह है कि जीवन के अन्तस्तल में मनुष्य की सब वासनाएं, इच्छाएं तृप्त हो जायें, उसका मन सब वस्तुओं से विमुक्त होजाये, उस के सब बन्धन नष्ट हो जाये। वह जन्म न धारण करे। यही मुक्ति है।

मुक्ति के लिये मनुष्य को ऐहिलौकिक कर्म इस भावना से करने अनिर्वाय हैं कि वह उनमें तनिक भी लिप्त न हो, और ऐसा व्यक्ति अभ्युदय की प्राप्ति नही कर सकेगा। इसीलिये ऐसे मनुष्य जो मुक्ति की भावना के लिए ऐहिलौकिक सब स्वार्थों और