पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/१६७

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हो। इसका अर्थ यह है जैसा कि बहुधा लोग किया करते हैं कि वे अपनी भलाई के काम करते हैं। धर्म नीति का आधार न तो मनुष्य की इच्छा पर ही है, और न स्वार्थ ही पर। ऐसे नीति निष्ट और धर्मात्माओं का अभाव नहीं जिन्होंने सत्य शोधने के लिये कष्ट सहे और जानें दीं। इससे हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि धर्म वे निर्णय हैं जो मनुष्य के मत, स्वार्थ और इच्छा से भिन्न है। और उनके आधीन होना मनुष्य के लिये कर्तव्य है।

धर्म नीति के तीन मूल सिद्धान्त हैं। १—सत्य, २—भलाई, ३—ईश्वरीय नियम। ये तीनों चीजें जगत में सदैव रहेंगी, चाहे सारी पृथ्वी के मनुष्य शैतान या अधर्मी क्यों न हो जायँ।

अनीति ही अधर्म है। पहले वह अनीति धर्म से पृथक दीख पड़ती है, पीछे वह धर्म के स्वरूप को प्रकट कर देती है। अन्याय और अन्धविश्वास आँधी की भाँति उठते और अन्त में नष्ट हो जाते हैं। सीरिया और बेविलिन में अधर्म का घड़ा भरते ही फूट गया। रोम अधर्म अनीति पर चलने लगा और नष्ट हो गया। बड़े २ रोमन महापुरुष भी उसकी रक्षा न कर सके। ग्रीस की चतुर प्रजा ग्रीस को अनीति के हाथ से न बचा सकी। फ्रांस का विद्रोह अनीति के ही विरुद्ध था। एक विद्वान का कहना है, अनीति को राज सत्ता सौंप दो—वह टिक न सकेगी।

क्रान्ति एक स्थिर सत्य है जो धर्म या नीति के विपरीत फैले जाल को नष्ट करती है। क्रान्ति सामाजिक जीवन का निरोगीकरण है।