पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/२२

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पुण्य के भागी हैं। क्योंकि वह रुपया तो उन्हीं की कमाई का है। यदि वे न कमावे तो पूञ्जी के द्वारा कोई भी धन पति रुपया कमा नहीं सकता। उस पर उन का अधिकार है। परन्तु कैसे मज़े की बात है कि वे कमाने वाले मज़दूर लोग तो कुत्तो की तरह मैले कुचैले, भूखे नंगे और संसार के सब भोगो से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं और उन की कमाई को हड़पने वाले उनके रुपयों से सुनहरी दीवारो के मन्दिर बनवाते हैं—जिन में हीरे और पन्नोकी प्रतिमाएं रहती हैं।

अफसोस तो यही है कि इन स्वार्थी ठगों और लुटेरे अमीरो के दांतों में उंगली डाल कर ग़रीबो के हक के पैसे निकालने वाले अभी देश में नही पैदा होते। सेठ मोटेमल जी ने एक लाख रुपया अछूतोद्धार को दिया, उन्हें धन्यवाद है। अखबारों में मोटे हैडिंग छपते हैं। पर कोई सम्पादक यह नहीं पूंछता कि यह रुपया देने में उन्होंने कुछ त्याग भी किया है? उन्हें कुछ कष्ट भी इससे हुआ है? क्या उन्होंने अपनी रहने की कोठी बेच कर दिया है, या स्त्री के निकम्मे गहने बेच कर? या अपना अनावश्यक फर्नीचर बेच कर। हम तो देखते हैं कि सट्टे में बीस लाख कमाया। एक लाख दे दिया। वाह वाही लूट ली।

अजी, मैं यह पूंछता हूँ कि मैं डाका डाल कर, खून करके या और कोई जालसाज़ी करके कही से दश बीस लाख रुपया ले आऊं तो उसमें लाख पचास हजार रुपये दान कर देने से क्या धर्म नहीं होगा? मेरा पाप नष्ट हो