पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/२३

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होगा तो इन चालाक अमीरों के दान भी धर्म खाते नहीं समझे जावेंगे, और उन के अपराध पूर्ण आमदनी के ज़रिये कभी क्षमाकी दृष्टि से नहीं देखे जावेंगे।

बड़े बड़े व्यापारियों के यहां, कलकत्ता, बम्बई और दिल्ली में एक धर्मादा खाता होता है। वे ब्यापारी जितने रुपये का माल ग्राहकों को बेचते हैं उन से धर्मादा भी कुछ लेते हैं। यह यद्यपि उनके गांठ का नहीं होता, पर उसे स्वेच्छा पूर्वक ख़र्च करने का उन्हें पूर्ण अधिकार होता है। और आप क्या कल्पना कर सकते हैं कि यह रुपया किस काम में ख़र्च किया जाता है? वे बेईमान धूर्त अमीर उस से अपनी बेटी का ब्याह करते हैं। मरे हुये माता पिताओ का कारज करते हैं। मैंने स्वयं ऐसे उदाहरण देखे हैं। यह धन लाखों रुपयों की संख्या में एकत्र हो जाता है।

अब सत्यवादी हरिश्चन्द्र का उदाहरण लीजिये। आज तक लोग लाखों वर्ष से इस सत्यवादी राजा के दान की प्रशंसा करते, और उसकी रानी के कष्टों पर आँसू बहाते हैं। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूं कि इस राजा को अपना समस्त राज्य एक मंगते को दे डालने का क्या अधिकार था। मुझे इससे कोई बहस नहीं कि वह मंगता श्रेष्ठ ऋषि विश्वामित्र थे—और इन्द्र के भेजे हुए उसकी परीक्षा के लिये आये थे। मैं तो इस बात पर विचार करना चाहता हूं कि क्या राजा को इस बात का अधिकार होना चाहिए कि वह चाहे भी जिसको अपना राज पाट दान करदे? फिर मंगते की इस निर्दयता की भी कहीं निन्दा नहीं की गई कि उसने