पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/२६

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दान करने वाले तो पापिष्ठ हैं ही, स्वीकार करने वाले भी धर्म हीन हैं। धर्मग्रन्थों में यह बात भी विचार से लिखी पाई गई है कि धर्मात्मा को किस किस का धन, अन्न, और आतिथ्य स्वीकार करना चाहिये। तेजस्वी लोग कभी अन्याई का दान और आतिथ्य नहीं स्वीकार करते। महापुरुष कृष्ण ने जिस वीरता से दुर्योधन का राजसी स्वागत और आतिथ्य अस्वीकार करके धर्मात्मा विदुर का दरिद्र आतिथ्य स्वीकार किया था, यह बात विचारने के योग्य है।

यदि कोई अमीर अपने सतखण्डे महलों को सामने खड़ा हो कर ढहा दे, या उन्हें अस्पताल बनवा दे, ठाठ बाट की चीजें, जवाहरात, ज़ेवर, जायदाद, सब सार्वजनिक सेवा में दान करदे और भविष्य में देश के साथ मजूरी करके खाय, जैसा कि देश खाता है। वैसे ही घरों में रहे जैसे में देश रहता है और निर्वाह के बाद देश के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर सार्वजनिक कार्य करे—कटे, मरे, जिए, फले फूले, तो निस्सन्देह वह धर्मात्मा है।

राजा महेन्द्रप्रताप और दर्बार गोपालदास के दान यद्यपि राजनैतिक भावनाओ से परिपूर्ण हैं, पर वे मेरी दृष्टि में धर्म दान की श्रेणी में हैं।

भाग्यहीन दारा, जब औरङ्गजेब द्वारा पकड़ा जाकर जल्लादों के साथ एक गन्दी और नङ्गी हथिनी पर दिल्ली के बाज़ारों में घुमाया गया, जहाँ वह सदा ही हीरे मोती लुटाता निकलता था। तब एक भिखारी ने उसे देख कर इस प्रकार कहा—दारा,