पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/३

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ग्रन्थकार का निवेदन

इस पुस्तक को पढ़कर मेरे बहुत से मित्र और बुजुर्ग मुझ पर हद दर्जे तक नाराज होंगे। सम्भव है मुझे उनकी मित्रता से भी हाथ धोना पड़े, क्योंकि उनमें से बहुतों की आजीविका पीढ़ियों से इस पुस्तक में वर्णित पाखण्डों के द्वारा ही चल रही है। मैं यह सत्य कहता हूँ कि पुस्तक न तो किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके लिखी गई है और न इसे लिखकर मैं किसी भी मित्र या अमित्र का अमङ्गल किया चाहता हूँ। इस पुस्तक को लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यही है, कि मेरे देश के नवयुवकों के दिमाग़ इस पाखण्ड पूर्ण धर्म से आजाद हो जायँ, और वे स्वतन्त्रता पूर्वक जैसे अपने सुसंस्कृत और सुशिक्षित मस्तिष्क से अपने भले बुरे की और बहुत सी बातें सोचते हैं इस विषय पर भी सोचें। क्योकि मेरी राय में हिन्दुओं की भविष्य नस्ल को—जो इन नवयुवकों की सन्तति होगी, मर्द बच्चा बनाने का एक मात्र यही उपाय है। और मैंने यह राय संसार की महा जातियों के नाश के इतिहासों का गम्भीरता पूर्वक मनन करके ही क़ायम की है।