पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/७६

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मैंने चौकन्ना होकर पण्डे से पूंछा कि यह क्या है? उसने कहा—माई का भोग है। मन्दिर के विशाल प्राङ्गण में आकर जो देखा उसे देख कर आँखें खुल गईं। मैंने अपनी आँखों से जीवित पशु का हनन इतने निकट से कभी नहीं देखा था, पर वहाँ सन्मुख मैंने देखा कि यथार्थ नाम खून की नदी बह रही है और सैकड़ो धड़ इधर उधर तड़प रहे हैं। और एक एक तण में खटाखट हो रही है। इतना अधिक रक्त एक बारग़ी ही देखकर और ऐसा भयानक दृश्य देख कर मेरी पत्नी और बालक तो इस तरह भयभीत हुये कि मैंने समझा कि वे बे‌होश होजावेंगे। मैं स्वयं भी बहुत ही विचलित हो उठा, पर तुरन्त मैं एक कदम और आगे बढ़ गया और ग़ौर से वह अभूतपूर्व दृश्य देखने लगा।

मन्दिर का प्राङ्गण बहुत विशाल था। उसमे पचास हज़ार मनुष्य खुशी से समा सकते थे। और उस समय पन्द्रह बीस हज़ार में कम स्त्री पुरुष वहाँ न होंगे। हठात वेग से खाण्डा पड़ता और धड़ रक्त का फव्वारा छोड़ता हुआ धरती पर तड़पने लगता सिर को मन्दिर के चबूतरे पर खड़ा हुआ पुजारी रस्सी के सहारे फुर्ती से ऊपर खींच लेता। पाँच आने पैसे, एक नारियल और फुछ पुष्प एक दोने में रखकर सिर के साथ पशु के स्वामी को और देने पड़ते तव यह स्वयं जाकर सिर को देवी की भेंट कर माता था। वहां में उस दौन में प्रसाद मिलता। वह बाहर आ फर अपने पशु का धड़ खींच कर एक ओर ज़रा हट कर बैठ्