पर इन्द्र ने नहीं माना। तब ऋषि सम्राट् बसु के पास गये और कहा—हे उत्तानपाद के बंशवर! तूने कैसी यज्ञ विधि देखी है सो कहः—
वसु ने कहा—द्विजों के मध्य पशुओं से तथा फल मूलों से यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है।
यह सुनकर ऋषियों ने उसे श्राप दिया जिस से उसका अधःपतन हो गया।
यही कथा कुछ फर्क से वायुपुराण में भी है। महाभारत में भी यह मजेदार घटना है।
"इन्द्र ने भूमि पर आकर यज्ञ किया। जब पशु की जरूरत हुई तब वृहस्पति ने कहा—पशु के स्थान आटे का पशु बनाओ। यह सुन देवता चिल्ला उठे कि बकरे के मांस से हवन करो।
तब ऋषियों ने कहा—नहीं धान्यो से यज्ञ करना चाहिये। बकरा मारना भले आदमियों को उचित नही। तब वे सम्राट आदि वसु के पास गये ओर पूंछा कि यज्ञ बकरे के मांस से करे या वनम्पतियों से।
तब राजा ने कहा—पहिले यह कहो किस का क्या मत है। तब ऋषियों ने कहा—
धान्य हमारा मत और पशु हनन देवों का।
वमु ने कहा—तब बकरेके मांससे ही यज्ञ करना चाहिये। तब ऋषियों ने उसे श्राप दिया।