पृष्ठ:धर्म के नाम पर.djvu/९५

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केवल इस उटपटांग वाक्य को बोलकर "भैरवी चक्र" में कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से समागम कर सकता है। इस वाक्य का यह अर्थ होता है कि "मैं भैरव हूँ और तू भैरवी है, आओ हमारा तुम्हारा सङ्गम हो।" साधारणतया जिन स्त्रियों को अपवित्र, अस्पर्श माना है—उन रजरवलाओं से भी व्यभिचार करने को इन तन्त्र ग्रन्थों में पवित्र कर्म माना गया है। 'रुद्रयामल तन्त्र' में लिखा है:—

"रजस्वला पुष्करं तीर्थ, चाण्डाली तु स्वयं काशी,
चर्मकारी प्रयागः स्यात् रजकी मथुरा मता।
अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता. . ... ....... . ...

अर्थात्—रजस्वला से सङ्गम करने से पुष्कर स्नान फल, चाण्डाली के समागम से काशी यात्रा, चमारी के समागम से प्रयाग स्नान, धोबिन के समागम से मथुरा यात्रा और कञ्जरी के साथ समागम करने से अयोध्या तीर्थ करने का फल मिलता है। ये लोग मद्य को 'तीर्थ' मांस को 'शुद्धि' और 'पुष्प' मछली को 'जलतुम्विका' मुद्रा को 'चतुर्थी' और मैथुन को 'पंचमी' के नाम से पुकारते हैं। ये लोग अन्य धर्म वालों को आपस मे 'कंटक, विमुख, भ्रष्टपथ नाम से पुकारते हैं।

भैरवी चक्र में पहुँच कर ये लोग धरती वा काठ के पटड़े पर कुछ सतिया जैसा पूर कर उस पर शराब का घड़ा रख कर पूजा करते हैं। और "ब्रह्मशापं विमोचय" मन्त्र पढ़ कर उसे पवित्र बनाते हैं—फिर एक भीतरी कोठरी में एक स्त्री और एक