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रानी सारन्धा


छत्रसाल-हम आज रात को छापा मारेंगे।

रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा-यह काम किसे सौंपा जाय?

छत्रसाल-मुझको।

'तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?'

'हाँ,मुझे पूर्ण विश्वास है।'

'अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे।' छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठा कर कहा-दयानिधि,मैंने अपना तरुण और होन-हार पुत्र बुंदेलों की प्रान के आगे भेंट कर दिया। अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है। मैंने बड़ी मूल्यवान् वस्तु अर्पित की है,इसे स्वीकार करो।

दूसरे दिन प्रातःकाल सारन्धा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिये मन्दिर को चली। उसका चेहरा पीला पड़ गया था और आँखों तले अँधेरा छाया जाता था। वह मन्दिर के द्वार पर पहुँची थी कि उसके थाल में बाहर से आकर एक तीर गिरा। तीर की नोक पर एक कागज़ का पुर्जा लिपरा हुआ था। सारन्धा ने थाल मन्दिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्जे को खोलककर देखा,तो आनन्द से चेहरा खिल गया। लेकिन यह आनन्द क्षण-भर का था हाय! इस पुर्जे के लिये मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है। कागज के टुकड़े को इतने मँहगे दामों किसने लिया होगा?

मन्दिर से लौटकर सारन्धा राजा चम्पतराय के पास गई और बोली 'प्राणनाथ,आपने जो वचन दिया था,उसे पूरा कीजिये। 'राजा ने चौंक कर पूछा, "तुमने अपना वादा पूरा कर दिया ?” रानी ने वह प्रतिज्ञापत्र राजा को दे दिया। चम्पतराय ने उसे गौरव से देखा, फिर बोले-अब मैं चलूँगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की खबर लूँगा। लेकिन सारन, सच बताओ, इस पत्र के लिये क्या देना पड़ा ?

रानी ने कुण्ठित स्वर से कहा-बहुत कुछ।

राना-सुनूँ?