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नाट्यसम्भव।

हे जननी! जैसे तुमने पहिले मुझे सङ्गीत और काव्य*[१] विद्या देकर अनुग्रहीत किया था वैसेही आज साहित्य भंडार के अनमोल रत्न नाट्यविद्या को भी देकर अतिशय कृतकृत्य और चिरवाधित किया। क्योंकि महात्माओं ने कहा है कि-

दोहा।

(१) साहित्यऽरु संगीत की कलाहीन नर जौन। सींग पोंछ विन जगत में खासा पसु है तौन॥ सो माता! आज तुमने मेरे इस कलङ्क को मिटा दिया।

सरस्वती। सत्य है। सङ्गीत और साहित्य के बिना मनुष्य, मनुष्यत्व से बिल्कुलही दूर रहता है। हम भी यही कहैंगी कि-

संगीत अरु साहित्य से जग माहिं जे नर हीन हैं।
पसु के समान सुदाय पग से सींग पोंछ विहीन हैं॥

भरत। किन्तु हे माता! जैसे दया करके इस गुप्त विद्या को तुमने दिया है, वैसेही कृपा कर अपने मुख से थोडासा उपदेश भी करदो तो यह ग्रन्थ फलीभूत होजाय।


  1. * रसात्मकं वाक्य काव्यम्। (सुबन्धुः)

(१) सङ्गीतसाहित्यकलाविहीनः।
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः॥