पृष्ठ:नाट्यसंभव.djvu/५८

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नाट्यसम्भव।

असीम महिमा का बखान नहीं कर सकते।

(हाथ में फूल लेकर)

"स्तौमि त्वाहं च देवीं मम खलु रसनांमा कदाचित्यजेथा-मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु मम मनुः पातु मां देवि पापात्॥मा मे दुःखं कदाचित्क्वचिदपि समये पुस्तके नाकुलत्वं-शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुंठा कदापि॥"

(चरण पर पुष्पाञ्जलि प्रदान)

सरस्वती। तथास्तु। और हे पुत्र! संगीचार्य्य। भरत। आज हमही प्रथम तुझे साहित्याचार्य की पदवी प्रदान करती हैं। (भरत चरणे पर गिर कर प्रणाम फरते हैं) अब तू पहिले जाकर नाट्यशाला सज। फिर उसमें नाट्यरचना,नेपथ्य की परिपाटी, दृश्य के पट और पात्रों को ठीक कर नाटकारंभ कर।

भरत। जो आज्ञा।

(नेपथ्य में)

राग यथारुति

मातु मैं सरन तिहारी आई।
भूलि इते दिन खायो नाहक सोचि २ पछिताई॥
हरहु हिये को अंधियारो सव जहां मूढ़ता छाई।
सुमतिभान अब उगैंखिल मन कमल छटा दरसाई॥
भाव भौर नवरस नित चालै नव अभिलाख जनाई।