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नारी समस्या
 

किन्तु उनका प्रयोग समय-समय पर बराबर होता ही रहता है।

प्रश्न यह है कि आखि़र इस अवस्था का उत्तरदायित्व किस पर है? मैं तो जब वर्तमान नारी-समस्या और साथ ही समाज की हीनावस्था पर विचार करने बैठती हूँ तो स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को अधिक दोषी पाती हूँ। मैंने अपने लेखों में उन्हें इसके लिये उलाहना भी दिया है। जो सत्य के पक्षपाती हैं, धीर हैं वे शांति से सुनते हैं; अपने वर्ग की दुर्बलताओं को स्वीकार करते हैं और कटिबद्ध होकर शताब्दियों से धुन के समान भीतर ही भीतर समाज की शक्ति को क्षीण करनेवाली इन कुरीतियों को नष्ट करने के लिये सामने आते हैं। समाज को चुनौती देकर सफलतापूर्वक कोई कार्य करना रणभूमि में जाकर शत्रु के समक्ष लड़ने से कम कठिन और वीरतापूर्ण नहीं। युद्ध में तो एक बार साहस की आवश्यकता होती है; फिर बाज़ी इधर या उधर। क्षण में कठिनाइयों का अन्त हो जाता है पर यहाँ तो जीवन भर समाज के दंड-चक्र में पिसना पड़ता है। जिन महिलाओं ने धर्म के इन भयंकर ठेकेदारों का विरोध मोल लेकर अन्य कुरीतियों के साथ परदा त्याग किया, उन्हें खूब अनुभव है कि समाज ने उन्हें उदरसात् कर लेने में कितना ज़ोर आज़माया।

आज कई दशाब्दियों के प्रयत्न के पश्चात भी ऐसे कितने वीर मैदान में आये जिन्होंने अपने परिवार से अवगुंठनमयी लज्जा का ही पूर्णरूपेण बहिष्कार कर दिया हो? आज बहुत से तथाकथित सुधारवादी नेता भी इसके लिये नारीसमाज को ही उत्तरदायी ठहराते हैं क्योंकि उनके मत से पुरुषों के हज़ार समझाने और अनवरत प्रयत्न करने पर भी स्त्रियाँ अपने इस जन्मजात गुण को छोड़ना नहीं चाहती; प्रत्युत आँचल में ही समेट कर रखना चाहती हैं। ऐसा कहने वाले सज्जन अपनी अन्तरात्मा से प्रश्न कर देखें तो संभवतः उन्हें उत्तर के लिये अन्यत्र न जाना पड़े। उक्त उद्देश्य को लेकर मुझे कट्टर से कट्टर रूढ़ि-वादिनी—यदि वे रूढ़ि का अर्थ समझती हों---महिलाओं से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे कहीं असफलता नहीं मिली। उन्होंने मेरे संपर्क के अनन्तर परदा त्यागते हुए अपूर्व आनन्द का अनुभव किया। जो ऐसा न कर सकीं उन्होंने शतप्रतिशत अपनी असमर्थता का कारण बतलाया समाज का बन्धन। किन्तु जब वही उद्देश्य लेकर मैं पुरुषों के समक्ष गई तो कुछ ने तो मिलना भी अनुचित समझा, कुछ ने विचार करने का आश्वासन दिया और कुछ ने मेरे कथन को उचित, तर्क-संगत और मान्य तो ठहराया किन्तु समाज की बला बैठे ठाले मोल लेने में बुद्धिमत्ता न समझी।