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नारी समस्या
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अभाव रहता है। प्रश्न उठता है कि गुलामों को तो संयम से ही रहना होता है, फिर उन्हें यह सुख क्यों नहीं मिलता ? उत्तर सरल है। किसी काम को करने का अधिकार न होने पर या किसी वस्तु के न मिलने पर या ज़बरदस्ती से काम कराये जाने पर, फटकार या मार के डर से काम करने पर और मजबूरन कुछ छीन लिये जाने पर, यदि कोई कहे कि हमने मन का जीता है, संयम किया है--वह भोग हम नहीं भोगेंगे, उस वस्तु की आवश्यकता होने पर भी हम उसे नहीं लेते, मन पर काबू रख कर इच्छा न होने पर भी हम वह काम करते हैं, त्याग करते हैं, आदि तो क्या यह संयम और त्याग दम्भ न होगा ? छीन लिये जाने पर किसी वस्तु को देना त्याग नहीं कहलाता। अपने लिये आवश्यक और जरूरी होने पर भी, दूसरे की आवश्यकता अपने से बड़ी है या अपने ही समान है, यह जानकर अपनी प्रिय वस्तु का, बिना बन्धन, स्वतन्त्रता पूर्वक उसे दे देना, अवश्य त्याग हो सकता है ।

गुलाम जब कोई कार्य अपनी इच्छा से कर नहीं सकता तब संयम और त्याग का प्रश्न कैसा ? गुलाम स्त्री से पुरुष का सच्ची सेवा और सच्चे प्रेम का आनन्द मिलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । गुलाम की सेवा और त्याग का मूल्य भी उतना नहीं होता जितना आज़ाद की सेवा और त्याग का होता है । स्वतन्त्र मनुष्य का निस्वार्थ और सच्चा प्रेम करने का सौभाग्य किसी तरह मिल भी जाता है,किन्तु गुलाम के लिये यह कटिन है; क्योंकि उसका दिल बहुत कमज़ोर होता है । गुलाम काम करते हुए भी आलसी ही रहते हैं। उनके सिर पर किसी प्रकार की जवाबदारी या उत्तरदायित्व नहीं रहता । इसी लिये तो वे ताड़न के अधिकारी कहे गये हैं। उनके दिल में उत्साह और प्रेरणा नहीं होती । होती भी है तो वह दबा दी जाती है । दूसरों के इशारों पर नाचने वालों में उमंग और स्वाभिमान कैसा ? कुछ लोग स्त्री का घर की रानी, मालकिन और देवी आदि बताकर उसे सुन्दर विशेषणों से सजाया करते हैं; क्योंकि बिना पैसे ही नहीं पैसे लेकर खरीदी हुई दासी से अधिकाधिक बलिदान कराने में कुछ कलाबाज़ियां भी कभी-कभी अच्छा काम देती हैं । घर की रानी और घर की दासी में बहुत कम भेद है । एक रोटी-कपड़ों पर आजीवन दासी रहती है; दूसरी कुछ शुल्क पर । घर की इस रानी के साथ घर के महाराजा और कुँवरों का कितना सहयोग रहता है ? रानी साहिबा किसी जरूरी काम से व्यस्त हैं, मेहमान बैठे हैं, आटे में हाथ सने हैं, और राजा साहब सिगरेट का धुआँ निकालते घर में बैठे हैं । इसी बीच यदि कुँवर साहब ने पाख़ाना कर दिया, तो 'जल्दी आओ' की कड़ी आवाज कसी गई । यदि कुछ देर हुई तो डाँट-फटकार । आज के कुछ सुधारक पति