पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२० निबंध-रत्नावली मौन व्याख्यान का प्रभाव चिरस्थायी होता है और उसकी अात्मा का एक अंग हो जाता है 1 न काला, न नीला, न पीला, न मुफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी न उत्तरी, न दक्षिणी, बे नाम, बे निशान, बे मकान-विशाल अात्मा के पाचरण से मौनरूपिणी सुगंधि सदा प्रमारित हुआ करती है। इसके मौन से प्रसून प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत् का कल्याण करके विस्तृत होने हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाती है। तीक्षण गरमी से जल भुने व्यक्ति आचरण के बादलों की बूंदाबांदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्पन्न शरदऋतु से क्लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंध- मय अटल वसंत ऋतु के आनंद का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत् भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद-नृत्य से उन्मदिष्णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्याख्यान से मनुष्य का एक नया जीवन प्राप्त होता है। नए नए विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं सूखे कूपों में जल भर आता है। नए नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थो के साथ एक नया मैत्री-भाव फुट पड़ता है। सूर्य; जल, वायु, पुष्प, पत्थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुंदर मति के दर्शन होने लगते हैं । मौनरूपी व्याख्यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थ- वती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्या 1