पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५२ निबंध-रत्नावली मजदूरी किए फकीरी का उच्च भाव शिथिल हो जाता है; फकीरी भी अपने आसन से गिर जाती है; बुद्धि बासी पड़ जाती है। बासी चीज अच्छी नहीं होती। कितने ही, उम्र भर, बासी बुद्धि और बासी फकोरी में मग्न रहते हैं; परंतु इस तरह मग्न होना किस काम का ? हवा चल रही है; जल बह रहा है। बादल बरस रहा है; पक्षी नहा रहे हैं; फूल खिल रहा है; घास नई, पेड़ नए, पत्ते नए-मनुष्य की बुद्धि और फकीरी ही बासी ! ऐसा दृश्य तभी तक रहता है जब तक बिस्तर पर पड़े पड़े मनुष्य प्रभात का आलस्य-सुख मनाता है। बिस्तर से उठकर जरा बाग की सैर करो, फूलों की सुगंध लो, ठंडी वायु में भ्रमण करो, वृक्षों के कोमल पल्लवों का नृत्य देखा तो पता लगे कि प्रभात-समय जागना बुद्धि और अंतःकरण को तरो ताजा करना है, और बिस्तर पर पड़े रहना उन्हें बासी कर देना है। निकम्मे बैठे हुए चिंतन करते अथवा बिना काम किए शुद्ध विचार का दावा करना, मानो सोते सोते खर्राटे मारना है। जब तक जीवन के अरण्य में पादड़ी, मौलवी, पंडित और साधु, सन्यासी हल, कुदाल और खुरपा लेकर मजदूरी न करेंगे तब तक उनका पालस्य जाने का नहीं, तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि, अनन्त काल बीत जाने तक, मलिन मानसिक जुआ खेलती ही रहेगी। उनका चिंतन बासी, उनका ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनके लेख बासी, उनका विश्वास बासी और उनका खुदा भी बासी हो गया है। इसमें संदेह नहीं रहना,