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कछुआ-धर्म

दौड़ते । हाँ, उनमें से कोई कोई उस समय का चिलकौआ नकद नरायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाता था । उस समय का सिक्का गोएं थीं । जैसे आजकल लखपति, करोड़पति, कहलाते हैं वैसे तब 'शतगु', 'सहस्रगु' कहलाते थे । ये दमड़ीमल के पोत करोड़ीचंद अपने 'नवग्वाः', 'दशग्वाः' पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे । आजकल के मेवा बेचनेवाले पेशावरियों की तरह कोई काई सरहदी यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते थे। कोई आर्य सीमाप्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे । मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी जैसी कि तरकारियों का भाव करन में कुँडिनों से हुआ करती है । ये कहते कि गौ की एक कला में सोम बेच दो । वह कहता कि वाह ! सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है । इधर ये गौ के गुण बखानते । जैसे बुड्ढे चौबजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिये कहा था कि 'याही में बेटी और याहा मे बेटा', ऐस ये भी कहते कि इस गौ से दृध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है । पर काबुली काहे को मानता । उसके पास सोम की मानोपली थी और इन्हें बिना लिए सरता नहीं। अंत को गौ का एक पाद, अर्ध, होते होते दाम तै हो जाते । भूरी आँखोंवाली एक बरस की बछिया में सोमराजा खरीद लिए जातं । गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते । जैसे मुसलमानों के यहाँ सूद लेना तो हराम है, पर हिंदू साहूकारों