पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१२)

“मारेसि मोहिं कुठाउँ”

जब कैंकयी ने दशरथ से यह वर माँगा कि राम को वनवास दे दो तब दशरथ तिलमिला उठे, कहने लगे कि चाहे मेरा सिर माँग ले, अभी दे दूॅंगा, किंतु मुझे राम के विरह से मत मार । गोसाइ तुलसीदासजी के भाव भरे शब्दों में राजा ने सिर धुनकर लम्बी साँस भरकर कहा कि 'मारेसि मोहिं कुठाउँ'- मुझे बुरी जगह पर घात किया। ठीक यही शिकायत हमारी आर्यसमाज से है। प्रायंसमाज ने भी हमें कुठाव मारा है, कुश्ती में बुरे पेच से चित पटका है ।

हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पड़ा, चाहे और बातो में हम ठगे गए पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं कतरी गई। राज के और धन के गठकटे यहाँ कई आए पर शब्दों की चोरी ( महाभारत के ऋषियों की कमल- नाल की ताँत की चोरी की तरह ) किसी ने न की। यही नहीं, जो आया उससे हमने कुछ ल लिया।

पहले हमें काम असुरों से पड़ा, असीरियावालों से। उनके यहाँ असुर शब्द बड़ी शान का था। असुर माने प्राण- वाला, जबरदस्त। हमारे इंद्र की भी यही उपाधि हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। फिर काम पड़ा पणियों

२०७