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निबंध-रत्नावली

 प्रणाम करना चाहता है, किंतु सोचता है, कि देवता हैं, चाहे जो हों, सिर झुकाना तो उचित है किंतु बिना मंत्र और पूजाविधि के प्रणाम करना शूद्रों का सा प्रणाम होगा। इतने ही में देवकुलिक (पुजारी) चौंककर आता है कि मैं नित्यकर्म से निबटकर प्राणिधर्म कर रहा था कि इतने में यह कौन घुस आया कि जिसमें और प्रतिमाओं में बहुत कम अंतर है ? वह भरत को प्रणाम करने से रोकता है। इस देवकुल में आने जाने की रुकावट न थी, न कोई पहरा था। पथिक बिना प्रणाम किए ही यहाँ सिर झुका जाते थे । भरत चौंककर पूछता है कि क्या मुझसे कुछ कहना है ? या किसी अपने से बड़े की प्रतीक्षा कर रहे हो, जिससे मुझे रोकते हो ? या नियम से परवश हो ? मुझे क्यों कतव्य-धर्म से रोकते हो ? वह उत्तर देता है कि आप शायद ब्राह्मण हैं, इन्हें देवता जान कर प्रणाम मत कर बैठना, ये क्षत्रिय हैं, इक्ष्वाकु हैं। भरत के पूछने पर पुजारी परिचय देने लगता है और भरत प्रणाम काता जाता है। यह विश्वजित् यज्ञ का करनेवाला दिलीप है जिसने धर्म का दीपक जलाया था।


अयं तैरप्रतिहारकागतैर्विना प्रणामं पथिकैरुपास्यते ।

+ विश्वजित् यज्ञ का विरोषण 'सन्निहितसर्वरत्न' दिया है। इसका सीधा अर्थ तो यह है कि जहाँ ऋत्विजों को दक्षिणा देने के लिये सब रत्न उपस्थित थे ( कालिदास का 'सर्वस्वदक्षिणम' ) । दूसरा अर्थ यह भी है कि राजा के रत्न-प्रजा प्रतिनिधि- सब वहाँ उपस्थित