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देवकुल

 आदर दिखाते थे। कभी कभी वहाँ सफाई और सजावट होती थी तथा एक दवकुलिक रहता था। देवकुलिक के वर्णन से संदेह होता है कि प्रतिमाओं पर लेख नहीं होते थे, किंतु लेख होने पर भी पुजारी और मुजाविर वर्णन करत ही हैं। अथवा कवि ने राजाओं के नाम और यश कहलवान का यही उपाय सोचा हो।

भास के इक्ष्वाकुवंश के देवकुल के वर्णन में एक शंका होती है। क्या चारों प्रतिमाएं दशरथ के मरने पर बनाई गई थी, या दशरथ के पहले के राजाओं की प्रतिमाएँ वहाँ यथासमय विद्यमान थीं, दशरथ की ही नई पधराई गई थी ? चाहिए तो ऐसा कि तीन प्रतिमाएं पहले थी, दशरथ की अभी बनाकर रखी गई थी, किंतु सुमंत्र के यह कहने से कि 'इदं गृहं तत् प्रतिमानृपस्य न:' और भट के इस कथन से कि भट्टिणो दसरहस्स पडिमागेहं देठं यह धोखा होता है कि प्रतिमागृह दशरथ ही के लिये बनवाया गया था, और प्रतिमाएँ वहाँ उसके अनुषंग से रखी गई थीं। माना कि भरत बहुत समय से केकय देश में था, वह अपनी अनुपस्थिति में स्थापित दशरथ को प्रतिमा का देखकर अचरज करता. किंतु वह तो इक्ष्वाकुओं के देवकुल, उसकी तीन प्रतिमा, उसके स्थान, चिह्न और उपचार व्यवहार तक से अपरिचित था। क्या उसने कभी इस इक्ष्वाकु-कुल के समाधि मंदिर के दर्शन नहीं किए थे, या इसका होना ही उसे विदित न था ? बातचीत से वह इस मंदिर से अनभिज्ञ, उसकी रीतियों से अनजान, दिखाई पड़ता है। सारा दृश्य ही उसके लिये नया है। क्या ही अच्छा संविधानक होता यदि