पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५०
निबंध-रत्नावली

कि नहर से नदी बनी है, नहर प्रकृति है और नदी विकृति,- [हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण का प्रारंभ ही यो किया है कि संस्कृत प्रकृति है, उससे भाया इसलिये प्राकृत कहलाया ] यह नहीं कि नदी अब सुधारकों के पंजे से छूटकर फिर सनातन मार्ग पर आई है।

इस रूपक को बहुत बढ़ा सकते हैं । संभव है कि हमें इसका फिर भी काम पड़े । वेद या छंदम् की भाषा का जितना साम्त्य पुरानी प्राकृति से है उतना संस्कृत से नहीं । संस्कृत में छाना हुआ पानी ही लिया गया है। प्राकृतिक प्रवाह का मार्ग- क्रम यह है-

३-प्राकृत-५-अपभ्रंश १-मूल भाषा, २-छंदम की भाषा, ४-संस्कृत

संस्कृत भजर-अमर तो हो गई, किंतु उसका वंश नहीं चला, वह कलमी पेड़ था। हाँ, उसकी संपत्ति से प्राकृत और अपभ्रंश और पीछे हिंदो आदि भाषाएँ पुष्ट होती गई और उसने भी समय-समय पर इनकी भेंट स्वीकार की।

वैदिक ( छंदस की ) भाषा का प्रवाह प्राकृत में बहता गया और संस्कृत में बँध गया। इसके कई उदाहरण हैं-(१) वेद में देवाः और देवासः दोनों हैं, संस्कृत में केवल 'देवाः' रह गया और प्राकृत आदि में 'बासस्' (दुहरे 'जस्' ) का वंश 'पात्रो'