पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३६

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निबंध-रत्नावली

वीर है व्यास आदि महर्षियों का स्मरणीय विद्यावैभव। पिछली विद्या से वर्तमान विद्या के मिलान करने का यही दिन है। इसे दावात कलम की जड़पूजा समझकर परित्याग न करना चाहिए। यह अलौकिक प्रतिभा की पूजा है जो गुदगुदे जी-वाले पर विलक्षण असर करती है।

पाठक ! श्रीपंचमी तो आ गई किंतु इस दिन भारत में माता सरस्वती की पूजा कौन करेगा? यही चिंता है। क्या हम लोग इस योग्य रह गए हैं कि भगवती के सामने इस दिन पवित्र लेखनी का स्पर्श करें? जो लोग जान बूझकर दुराग्रह और द्वेष के कारण धर्म-प्रचारक साधु सच्चरित्र महानुभावों पर अप- शब्दों की वृष्टि कर और निज नीच हृदय का उद्गार निकालकर वाणी की अप्रतिष्ठा कर रहे हैं, क्या वे लोग इस दिन लेखनी की पूजा कर सकते हैं? परदारलंपट को जितेंद्रिय, धूर्तप्रवचक को संसारत्यागी निर्लोभ संन्यासी, धर्म और देश के संहारकर्ता उदरसर्वस्व को देशहितैषी धर्मात्मा, और गंडमूर्ख को सुपंडित सुलेखक सुवक्ता लिखना जिनके बाएं हाथ का खेल है, जो सामान्य लाभ के कारण अपनी पेटभरी आत्मा के विरुद्ध लिखने में नेक भी संकोच नहीं करते, उन्हें लेखनी वा सरस्वती पूजने का क्या अधिकार है? जो रुपए लेकर पतित से पतित पुरुष को भी धर्मात्मा और वर्णसंकर वा शूद्र को क्षत्रिय बना सकते हैं, धर्मव्यवस्था के नाम से अधर्म और रक्त से भरी व्यवस्था दे सकते हैं। और जो एक दरिद निःसंबल पर, धर्मात्मा पुरुष के