पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १११ )

माघ फा महीना कनौजियों का फाल है। पानी छूते हाथ पांच गवते हैं। पर हमें विना स्नान किये फलहारी साना भी धर्मनाशक है । जलसूर के माने चाहे जो हो, पर हमारी समझ में यही माता है कि सूर अर्थात अधे अनके, पाखें मूदके लोटा भर पानी पीठ पर डाल लेनेवाला जलसूर है !

फागुन में होली घडा भारी पर्व है। सय को सुख देती है । पर उस भी कइयों को देती है। एक माडवारी, दिनभर नाना है न पीना, डफ पीटते २ हाथ रह जाता है। होकते २ गला फटता है। कहीं अकेले दुकेले शैतान-चौकडी (लडकों के समूह) में निफल गए तो कोई पाग उतारै छ, फोई धाप मार है, कोई कीचड उछारै छै ! क्या करें विचारे एक तो दिन्दू, दूसरे फमजोर, तीसरे परदेशी सभी तरह आफ़त है। दूसरे नई रोशनीवाले देशमाइयों की बैलच्छ देख देख जले जाते हैं । यह चाइते है सब ज्यटिलमैन बन जायें, यहां आदमी बनना भी नापसद है। • मुह रगे हनुमान जी की बिरादरी में मिले जाते हैं। तीसरे दाढ़ीवाले हिन्दू दिनभर रग अवीर घोमो, पर ललाई कहा जाता है। जो किसी ने गंधा पिरोजा लगा दिया तो और भी आफत है । तो, इतने हमने पता दिए, कुछ तुम भी सोचो।

_________