पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/२१

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प्रतिमा,परिहासप्रिति,नाट्य- कौशल आदि ।


कोई कोई कहते हैं कि प्रतापनारायण सरसत भी अच्छी जानते थे और फारसी भी । किसी किसी के मुह से हमने सुना । है कि वे अरवी तक जानते थे। परन्तु जो लाग उनके पास हमेशा बैठते उठते थे उनका मत हे कि अरवी नही जानते थे। उर्दू में तो वे बहुना अच्छी फरिता करते थे। मशायरों तक में जाते थे, दीवाने विरहमन में उनकी उर्दू कविता सग्रहीतहै। सस्कृत में भी उनके नाम से कुछ कविता छपी है और फारसी में भी। पर इस बात की तहकीकात करने की हम कोई जरूरत नहीं देखते कि वे इन मापाओं में कितनी गति रसते थे। कवि के लिए जिस यात को सबसे अधिक जरूरत होतो हे वह प्रतिभा है। और इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रतापनारायण में प्रतिभा थी, आर याडी नहीं, यहुन थी। विद्वत्ता होने से कविता शक्ति में काई निशेपता नहीं आ सकती, उस्तटा हानि चाहै उसले कुछ हा जाय । प्रतापनारा- रण की कविता में प्रतिभामा प्रमाण श्रोक जगह पर मिलता है। उनकी कोई कोई उक्तियां बहुत ही अनोपो और नई है। उनकी कविता में विशेष करके हास्यरम का यदुतही थच्छा परिपाफ हाता था । वे बड़ी शोधता से छन्दोरचना कर 'सकते थे। जेसा पहले कहा गया है, कानपुर में बहुधा लावनीवाजों के दो दलों में तावनीवाजी हुशा करती थी। फमी एकादलवाले उनको अपनी तफ बिठा लेते थे और उस दल के इच्छानुसार, विरोधीदल का गाना समाप्त होने होते, वे नई लापनी तैयार कर देने थे। कभी दूसरे दलवाले