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नवाँ परिच्छेद
 

क्या आशा थी, जिसकी उसे लालसा होती ? उसने अपने मन को इस विचार से समझाया था कि यह मेरे पूर्व कर्मोंका प्रायश्चित्त है। कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत दिन जी सके ? कर्तव्य की वेदी पर उसने अपना जीवन और उसकी सारी कामनाएँ होम कर दी थीं । हृदय रोता रहता था; पर मुख पर हँसी का रङ्ग भरना पड़ता था। जिसका मुंह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हँस-हँस कर, बातें करनी पड़ती थीं। जिस देह का स्पर्श उसे सर्प के शीतल स्पर्श के समान लगता था, उससे आलिङ्गित होकर उसे जितनी घृणा, जितनी मर्म-वेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है ? उस समय उसकी यही इच्छा होती थी, कि धरती फट जाय; और मैं उसमें समा जाऊँ! लेकिन सारी विडम्बना अपने ही तक थी, और अपनी चिन्ता करनी उसने छोड़ दी थी;लेकिन वह समस्या अब अत्यन्त भयङ्कर हो गई थी। वह अपनी आँखों से मन्साराम की आत्म-पीड़ा नहीं देख सकती थी। मन्साराम जैसे मनस्वी, साहसी युवक पर इस आपेक्ष का जो असर पड़ सकता था, उसकी कल्पना ही से उसके प्राण काँप उठते थे। अव चाहे उस पर कितने ही सन्देह क्यों न हों, चाहे उसे आत्महत्या ही क्यों न करनी पड़े. पर वह चुप नहीं बैठ सकती थी। मन्साराम की रक्षा करने के लिए वह विकल हो गई। उसने सङ्कोच और लज्जा की चादर उतार कर फेंक देने का निश्चय कर लिया।

वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने के पहले एक बार