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बारहवां परिच्छेद
दिन गुजर गए;और मुन्शी जी घर न आए! रुक्मिणी दोनों वक्त अस्पताल जाती;और मन्साराम को देख आती थी। दोनों लड़के भी जाते थे; पर निर्मला कैसे जाती? उसके पैरों में तो
वेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। वह मन्साराम की बीमारी का हाल-चाल जानने के लिए व्यग्र रहती थी,यदि रुक्मिणी से कुछ पूछती थी, तो ताने मिलते थे और लड़कों से पूछती,तो वे बेसिर-पैर की बातें करने लगते! एक वार खुद जाकर देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे यह भय होता था कि सन्देह ने कहीं मुन्शी जी के पुत्रप्रेम को शिथिल न कर दिया हो,कहीं उनकी कृपणता ही तो मन्साराम के अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है? डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते,इन्हें तो अपने पैसों से काम है,मुर्दा दोजख में जाय या विहिश्त में। उसके मन में प्रबल इच्छा होती