पृष्ठ:निर्मला.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१६४
 

गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है ! लड़ने की माँ अलबत्ता देवी थी । उसने पुत्र और पति दोनों ही को जनन्नया: पर उसकी कुछ न चली !

सुधा- मैं तो उस लड़के को पाती; तो खूब आड़े हार्थों लेती !

निर्मला--रे भाग्य में तो जो लिखा था, वह हो चुका ! बेचारी कृष्ण पर न जाने क्या बीतेगी ?

सन्ध्या सन्य निर्मला के जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर ले आए तो सुधा ने कहा क्यों जी, तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने के बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह सन्बन्ध कर ले ?

डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की और कुतुहल से देख कर कहा ऐसा नहीं करना चाहिए और क्या ?

सुधा-यह क्यों नहीं कहते कि यह घोर नीचता है-परले सिरे का कमीनापन है!

सिन्हा-हाँ, यह कहने में भी सुने इन्कार नहीं !

सुधा-किलका अपराध बड़ा है ? वर का या घर के पिता का?

सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है । विस्मय से बोले-जैसी स्थिति हो। अगर वर पिता के आधीन हो, तो पिता ही का अपराध समझो !

सुधा-आधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्तव्य नहीं है ? अगर उसे अपने लिए नए कोट की जरूरत हो,