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तेरहवाँ परिच्छेद
 

आप वही महा-पुरुप हैं, तो शायद फिर इस घर में कदमन रक्खे। ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपुण और ऐसी परम सुन्दरी स्त्री इस शहर में दो ही चार होंगी। तुम मेरा बखान करते हो! मैं उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूँ! घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है,मगर जब प्राणी ही मेल का नहीं, तो और सब रह कर क्या करेगा? धन्य है, उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है! मैंने तो कव का जहर खा लिया होता! मगर मन की व्यथा कहने ही से थोड़े ही प्रकट होती है। हँसती है, वोलती है,गहनेकपड़े पहनती है;पर रोयाँ-रोयाँ रोया करती है।

सिन्हा-वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी?

सुधा-शिकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके पति नहीं हैं? संसार में अब उसके लिए जो कुछ हैं, वकील साहव हैं! वह बुढ़े हों या रोगी,पर हैं तो उसके स्वामी ही! कुलवती स्त्रियाँ पति की निन्दा नहीं करतीं-यह कुलटाओं का काम है। वह उनकी दशा देख कर कुढ़ती हैं। पर मुंह से कुछ नहीं कहती!

सिन्हा-इन वकील साहव को क्या सूझी थी,जो इस उम्र में व्याह करने चले?

सुधा-ऐसे आदमी न हों,तो गरीब कॉरियों की नाव कौन पार लगाये? तुम और तुम्हारे साथी विना भारी गठरी लिए वात नहीं करते,तो फिर ये बेचारी किसके घर जायँ! तुमने