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निर्मला
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निर्मला-पालकी में जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते।

सुधा-बिलकुल नहीं, मालूम होता है, सारी देह में पेट ही पेट है।

निर्मला-दूसरे हाथी पर कौन बैठा हुआ है, समझ में नहीं आता।

सुधा-कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो-चालीस के ऊपर होगी।

निर्मला-शास्त्री जी तो इस वक्त द्वार-पूजा की फिक्र में हैं, नहीं तो उनसे पूछती।

संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुञ्जियाँ निर्मला ही के पास थीं। इस वक्त द्वार-चार के लिए कुछ रुपए की जरूरत थी, माता ने भेजा था। यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था। निर्मला ने कहा-क्या अभी रुपए चाहिए?

नाई-हाँ वहिन जी, चल कर दे दीजिए।

निर्मला-अच्छा चलती हूँ। पहले यह वता, तू दूल्हा के बड़े भाई को पहचानता है?

नाई-पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं।

निर्मला-कहाँ, मैं तो नहीं देखती?

नाई-अरे, वह क्या घोड़े पर सवार हैं? वही तो हैं।

निर्मला ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?