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पच्चीसवां परिच्छेद
 

रुक्मिणी का घर में रहना उसे ऐसा कष्टकर जान पड़ता था, मानो वह उसकी गर्दन पर सवार है । जब हृदय जलता है, तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है । निर्मला बड़ी मधुर-भषिणी स्त्री थी; पर अब उसकी गणना कर्कशाओं में की जा सकती थी। दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें ही निकला करती थीं । उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई । भावों में माधुर्य का कहीं नाम ही नहीं। भुड़ी बहुत दिनों से इस घर में नौकर थी । स्वभाव की सहनशीला थी ; पर यह आठों पहर की बक-झक उससे भी न सही गई । एक दिन उसने भी घर की राह ली। यहाँ तक कि जिस बच्ची को वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई । बात-बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती । रुक्मिणी रोती हुई बालिका को गोद में उठा लेती ; और चुमकार-दुलार कर चुप करती । उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था।

निर्मला को अब अगर कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बातें करना था । वह वहाँ जाने का अवसर खोजती रहती थी। बच्ची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी। पहले जब बच्ची को अपने घर सभी चीजें खाने को मिलती थी, तो वह वहाँ जाकर हँसती-खेलती थी। अब वहाँ जाकर उसे भूख लगती थी। निर्मला उसे घूर-चूर कर देखती, मुट्ठियाँ बाँध कर धमकाती; पर लड़की भूख की रट लगाना न छोड़ती थी। इसीलिए अब निर्मला उसे साथ न ले जाती थी । सुधा के पास बैठ कर उसे मालूम होता