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पच्चीसवां परिच्छेद
 

डॉक्टर-मलाई हुई तो नहीं चली गई। जाने लगी तो मैंने कहा बैठिए,वह आती होंगी। न बैठी तो मैं क्या करता?

सुधा ने कुछ सोच कर कहा-बात कुछ समझ में नहीं आती! मैं जरा उनके पास जाती हूँ। देखूं बात क्या है?

डॉक्टर-तो चली जाना,ऐसी जल्दी क्या है! सारा दिन तो पड़ा हुआ है।

सुधा ने चादर ओढ़ते हुए कहा-मेरे पेट में खलबली मची हुई है, तुम कहते हो जल्दी क्या है?

सुधा तेजी से कदम बढ़ाती हुई निर्मला के घर की ओर चली;और पाँच मिनिट में जा पहुँची। देखा तो निर्मला अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी रो रही थी; और बच्ची उसके पास खड़ी पूछ रही धी-अम्माँ,क्यों लोती हो?

सुधा ने लड़की को गोद में उठा लिया और निर्मला से बोली बहिन,सच बताओ क्या बात है? मेरे यहाँ किसी ने तुम्हें कुछ कहा है? मैं सबसे पूछ चुकी,कोई नहीं बतलाता।

निर्मला आँसू पोंछती हुई वोली-किसी ने कुछ कहा नहीं वहिन, भला वहाँ मुझे कौन कुछ कहता?

सुधा-तो फिर मुझसे बोली क्यों नहीं,और आते ही आते रोने क्यों लगों?

निर्मला-अपने नसीबों को रो रही हूँ और क्या?

सुधा-तुम यों न बताओगी तो मैं क़सम रखा दूंगी।