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निर्मला
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गए,उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती कामिनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छबि उनके हृदय का शूल बन गई।

निर्मला ने कहा-आज इतनी देर कहाँ लगाई। दिन भर राह देखते-देखते आँखें फूट जाती हैं।

तोताराम ने खिड़की की ओर ताकते हुए जवाब दिया-मुक़दमों के मारे दम मारने की छुट्टी नहीं मिलती। अभी एक मुकदमा और था,लेकिन मैं सिर-दर्द का बहाना करके भाग खड़ा हुआ।

निर्मला-तो क्यों इतने मुकदमे लेते हो? काम उतना ही करना चाहिए,जितना आराम से हो सके। प्राण देकर थोड़े ही काम किया जाता है!मत लिया करो बहुत मुकदमे,मुझे रुपयों का लालच नहीं। तुम आराम से रहोगे, तो बहुत रुपए मिलेंगे।

तोता-भई,आती हुई लक्ष्मी भी तो नहीं ठुकराई जाती।

निर्मला—लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है, तो उसका न आना ही अच्छा मैं धन की भूखी नहीं हूँ।

इसी वक्त मन्साराम भी स्कूल से लौटा।धूप में चलने के कारण मख पर पसीने की बूंदें आई हुई थीं, गोरे मुखड़े पर जन की लाली दौड़ रही थी, आँखों से ज्योति सी निकलती मालूम होती थी। द्वार पर खड़ा होकर बोला-अम्माँ जी, लाइए कुछ खाने को 'निकालिए, जरा खेलने जाना है।