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सियाराम ने कातर कंठ से कहा—मैं भी आपके साथ चलूँगा।

परमानंद-मेरे साथ! तुम्हारे घर के लोग जाने देंगे?

सियाराम-घर के लोगों को मेरी क्या परवाह है? इसके आगे सियाराम और कुछ न कह सका। उसके अश्रु-पूरित नेत्रों ने उसकी करुण-गाथा उससे कहीं विस्तार के साथ सुना दी, जितनी उसकी वाणी कर सकती थी।

परमानंद ने बालक को कंठ से लगाकर कहा—अच्छा बच्चा, तेरी इच्छा हो तो चल। साधु-संतों की संगति का आनंद उठा। भगवान् की इच्छा होगी तो तेरी इच्छा पूरी होगी।

दाने पर मँडराता हुआ पक्षी अंत में दाने पर गिर पड़ा। उसके जीवन का अंत पिंजरे में होगा या व्याध की छुरी के तले–यह कौन जानता है?

23.

मुशीजी पाँच बजे कचहरी से लौटे और अंदर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुँह सूख गया। निर्मला समझ गई, आज दिन खाली गया। निर्मला ने पूछा-आज कुछ न मिला।

मुंशीजी–सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा।

निर्मला-फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ?

मुंशीजी-मेरे मुवक्किल को सजा हो गई।

निर्मला-पंडित वाले मुकदमे में?

मुंशीजी-पंडित पर डिग्री हो गई।

निर्मला-आप तो कहते थे, दावा खारिज हो जाएगा।

मुंशीजी–कहता तो था और अब भी कहता हूँ कि दावा खारिज हो जाना चाहिए था, मगर उतना सिर मगजन कौन करे?

निर्मला-और सीरवाले दावे में?

मुंशीजी-उसमें भी हार हो गई।

निर्मला—तो आज आप किसी अभागे का मुँह देखकर उठे थे।

मुंशीजी से अब काम बिल्कुल न हो सकता था। एक तो उनके पास मुकदमे आते ही न थे और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपए उधार लाकर निर्मला को देते। प्रायः सभी मित्रों से कुछ-न-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।

निर्मला ने चिंतापूर्ण स्वर में कहा-आमदनी का यह हाल है तो ईश्वर ही मालिक है। उस पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल है। भूँगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटा। कितना कहकर हार गई कि लकड़ी लेते आओ, पर सुना ही नहीं।

मुंशीजी-तो खाना नहीं पकाया?

निर्मला—ऐसी ही बातों से तो आप मुकदमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती?

मुंशीजी-तो बिना कुछ खाए ही चला गया।

निर्मला-घर में और क्या रखा था, जो खिला देती?