पृष्ठ:निर्मला.pdf/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मुंशीजी ने डरते-डरते कहा—कुछ पैसे-वैसे न दे दिए?

निर्मला ने भौंहे सिकोड़कर कहा-घर में पैसे फलते हैं न?

मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया। जरा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जलपान के लिए कुछ मिलेगा, लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मँगवाया तो बेचारे निराश होकर चले गए। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चंचल हो उठा। एक बार दूँगी ही से लकड़ी मँगा ली जाती तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी किफायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जाएँ। अपना संदूकचा खोलकर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जाएँ। उसके अंदर के सारे कागज निकाल डाले। एक-एक खाना देखा, नीचे हाथ डालकर देखा, पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के संदूक में पैसे न फलते थे तो इस संदूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाड़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े। बड़ीबड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उनका पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जवाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अंदर जाकर भूँगी से पूछा। मालूम हुआ स्कूल से लौट आए।

मुंशीजी ने पूछा-कुछ पानी पिया है?

भूँगी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़कर मुँह फेरे हुए चली गई। मुंशीजी अहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गए। आज पहली बार उन्हें निर्मला पर क्रोध आया, लेकिन एक ही क्षण में क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अँधेरे कमरे में फर्श पर लेटे हुए वह अपने पुत्र की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन भर के थके थे। थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गई। भूँगी ने आकर पुकारा–बाबूजी, रसोई तैयार है।

मुंशीजी चौंककर उठ बैठे। कमरे में लैंप जल रहा था पूछा—कै बज गए भूँगी? मुझे तो नींद आ गई थी।

भूँगी ने कहा-कोतवाली के घंटे में नौ बज गए हैं, और हम नाहीं जानित।

मुंशीजी-सिया बाबू आए?

भूँगी–आए होंगे, तो घर ही में न होंगे।

मुंशीजी ने झल्लाकर पूछा—मैं पूछता हूँ, आए कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आए कि नहीं?

भूँगी–मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूँ।

मुंशीजी फिर लेट गए और बोले-उनको आ जाने दे, तब चलता हूँ।

आध घंटे तक द्वार की ओर आँख लगाए मुंशीजी लेटे रहे, तब वह उठकर बाहर आए और दाहिने हाथ कोई दो फर्लांग तक चले। तब लौटकर द्वार पर आए और पूछा-सिया बाबू आ गए?

अंदर से आवाज आई-अभी नहीं। मुंशीजी फिर बाईं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गए। सियाराम कहीं दिखाई न दिया। वहाँ से फिर घर आए और द्वार पर खड़े होकर पूछा-सिया बाबू आ गए?

अंदर से जवाब मिला-नहीं।

कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे।

मुंशीजी बड़े वेग से कंपनी बाग की तरफ चले। सोचने लगे, शायद वहाँ घूमने गया हो और घास पर लेटे-लेट नींद आ गई हो। बाग में पहुँचकर उन्होंने हरेक बेंच को देखा, चारों तरफ घूमे, बहुत से आदमी घास पर पड़े हुए