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थे, पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा, पर कहीं से आवाज न आई।

खयाल आया शायद स्कूल में तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ चले, पर आधे रास्ते से ही लौट पड़े। बाजार बंद हो गया था। स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता। अब भी उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा–सिया बाबू आए? किवाड़ बंद थे। कोई आवाज न आई। फिर जोर से पुकारा। भूँगी किवाड़ खोलकर बोली-अभी तो नहीं आए। मुंशीजी ने धीरे से भंगी को अपने पास बुलाया और करुण स्वर में बोले-तू तो घर की सब बातें जानती है, बता आज क्या हुआ था?

भूँगी-बाबूजी, झूठ न बोलूँगी, मालकिन छुड़ा देंगी और क्या? दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रखा जाता। जहाँ कोई काम हुआ, बस बाजार भेज दिया। दिन भर बाजार दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गए तो चूल्हा ही नहीं जला। कहो तो मुँह फुलावें। जब आप ही नहीं देखते तो दूसरा कौन देखेगा? चलिए, भोजन कर लीजिए, बहूजी कब से बैठी हैं।

मुंशीजी–कह दे, इस वक्त नहीं खाएँगे।

मुंशीजी फिर अपने कमरे में चले गए और एक लंबी साँस ली। वेदना से भरे हुए शब्द उनके मुँह से निकल पड़े। ईश्वर, क्या अभी दंड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अंधे की लकड़ी को हाथ से छीन लोगे?

निर्मला ने आकर कहा-आज सियाराम अभी तक नहीं आए। कहती रही कि खाना बनाए देती हूँ, खा लो, मगर न जाने कब उठकर चल दिए! न जाने कहाँ घूम रहे हैं। बात तो सुनते ही नहीं। कब तक उनकी राह देखा करूँ! आप चलकर खा लीजिए, उनके लिए खाना उठाकर रख दूँगी।

मुंशीजी ने निर्मला की ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा-अभी कै बजे होंगे?

निर्मला-क्या जाने, दस बजे होंगे। मुंशीजी—जी नहीं, बारह बजे हैं। निर्मला-बारह बज गए? इतनी देर तो कभी न करते थे। तो कब तक उनकी राह देखोगे! दोपहर को भी कुछ नहीं खाया था। ऐसा सैलानी लड़का मैंने नहीं देखा।

मुंशीजी-तुम्हें दिक् करता है, क्यों?

निर्मला-देखिए न, इतनी रात गई और घर की सुध ही नहीं।

मुंशीजी-शायद यह आखिरी शरारत हो।

निर्मला-कैसी बातें मुँह से निकालते हैं? जाएँगे कहाँ? किसी यार-दोस्त के यहाँ पड़ रहे होंगे।

मुंशीजी-शायद ऐसा ही हो। ईश्वर करे, ऐसा ही हो।

निर्मला-सबेरे आवें, तो जरा तंबीह कीजिएगा।

मुंशीजी-खूब अच्छी तरह करूँगा।

निर्मला—चलिए, खा लीजिए, देर बहुत हुई।

मुंशीजी-सबेरे उसकी तंबीह करके खाऊँगा, कहीं न आया तो तुम्हें ऐसा ईमानदार नौकर कहाँ मिलेगा?

निर्मला ने ऐंठकर कहा-तो क्या मैंने भगा दिया?

मुंशीजी-नहीं, यह कौन कहता है? तुम उसे क्यों भगाने लगीं। तुम्हारा तो काम करता था, शामत आ गई होगी।

निर्मला ने और कुछ नहीं कहा। बात बढ़ जाने का भय था। भीतर चली आई। सोने को भी न कहा। जरा देर में भूँगी ने अंदर से किवाड़ भी बंद कर दिए।