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अपयश ही बदा था।

दोपहर हो गई, पर आज भी चूल्हा नहीं जला। खाना भी जीवन का काम है, इसकी किसी को सुध ही न थी। मुंशीजी बाहर बेजान-से पड़े थे और निर्मला भीतर थी। बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और 'बैया-बैया' पुकारती, पर 'बैया' कोई जवाब न देता था।

संध्या समय मुंशीजी आकर निर्मला से बोले—तुम्हारे पास कुछ रुपए हैं?

निर्मला ने चौंककर पूछा-क्या कीजिएगा।

मुंशीजी—मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब दो।

निर्मला—क्या आपको नहीं मालूम है? देनेवाले तो आप ही हैं।

मुंशीजी-तुम्हारे पास कुछ रुपए हैं या नहीं? अगर हों, तो मुझे दे दो, न हों तो साफ जवाब दो।

निर्मला ने अब भी साफ जवाब न दिया। बोली-होंगे तो घर ही में न होंगे। मैंने कहीं और नहीं भेज दिए।

मुंशीजी बाहर चले गए। वह जानते थे कि निर्मला के पास रुपए हैं, वास्तव में थे भी। निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नहीं है या मैं न दूँगी, उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती।

नौ बजे रात तो मुंशीजी ने आकर रुक्मिणी से कहा-बहन, मैं जरा बाहर जा रहा हूँ। मेरा बिस्तर भूँगी से बँधवा देना और ट्रक में कुछ कपड़े रखवाकर बंद कर देना।

रुक्मिणी भोजन बना रही थीं। बोलीं-बहू तो कमरे में है, कह क्यों नहीं देते? कहाँ जाने का इरादा है?

मुंशीजी–मैं तुमसे कहता हूँ, बहू से कहना होता तो तुमसे क्यों कहता? आज तुम क्यों खाना पका रही हो?

रुक्मिणी-कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिर इस वक्त कहाँ जा रहे हो? सबेरे न चले जाना।

मुंशीजी—इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गए। इधर-इधर घूम-घूमाकर देखें, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाए। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधु के साथ बातें कर रहा था। शायद वह कहीं बहका ले गया हो।

रुक्मिणी-तो लौटोगे कब तक?

मुंशीजी–कह नहीं सकता। हफ्ता भर लग जाए, महीना भर लग जाए। क्या ठिकाना है?

रुक्मिणी-आज कौन दिन है? किसी पंडित से पूछ लिया है कि नहीं?

मुंशीजी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त उनपर बड़ी दया आई। उसका सारा क्रोध शांत हो गया। खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली–देख, तेरे बाबूजी कहाँ जा रहे हैं? पूछ तो?

बच्ची ने द्वार से झाँककर पूछा-बाबू दी, तहाँ दाते हो?

मुंशीजी-बड़ी दूर जाता हूँ बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूँ। बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा—अम बी तलेंगे।

मुंशीजी-बड़ी दूर जाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लाएँगे। यहाँ क्यों नहीं आती?

बच्ची मुसकराकर छिप गई और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकालकर बोली-अम बी तलेंगे।

मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा-तुमको नहीं ले तलेंगे।

बच्ची हमको क्यों नई ले तलोगे?

मुंशीजी-तुम तो हमारे पास आती नहीं हो।

लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गई। थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अंतखेदना भूल गए।

भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गए। निर्मला खड़ी ताकती रही। कहना चाहती थी-व्यर्थ जा रहे हो, पर कह न