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सकती थी। कुछ रुपए निकाल कर देने का विचार करती थी, पर दे न सकती थी।

अंत में न रहा गया, रुक्मिणी से बोली-दीदीजी जरा समझा दीजिए, कहाँ जा रहे हैं! मेरी जबान पकड़ी जाएगी, पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहाँ खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी।

रुक्मिणी ने करुणा-सूचक नेत्रों से देखा और अपने कमरे में चली गई।

निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें, पर उसकी आशा विफल हो गई? मुंशीजी ने बिस्तर उठाया और ताँगे पर जा बैठे।

उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुंशीजी को रोक ले, पर ताँगा चल चुका था।

24.

दिन गुजरने लगे। एक महीना पूरा निकल गया, लेकिन मुंशीजी न लौटे। कोई खत भी न भेजा। निर्मला को अब नित्य यही चिंता बनी रहती कि वह लौटकर न आए तो क्या होगा? उसे इसकी चिंता न होती थी कि उनपर क्या बीत रही होगी, वह कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और उससे भी बढ़कर बच्ची की चिंता थी। गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा? ईश्वर कैसे बेड़ा पार लगाएँगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतर-ब्योंत करके जो रुपए जमा कर रखे थे, उसमें कुछ-न-कुछ रोज ही कमी होती जाती थी। निर्मला को उसमें से एक-एक पैसा निकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो। झुँझलाकर मुंशीजी को कोसती। लड़की किसी चीज के लिए रोती तो उसे अभागिन, कलमुँही कहकर झल्लाती। यही नहीं, रुक्मिणी का घर में रहना उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो वह गरदन पर सवार है। जब हृदय जलता है तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है। निर्मला बड़ी मधुर-भाषिणी स्त्री थी, पर अब उसकी गणना कर्कशाओं में की जा सकती थी। दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें निकला करती थीं। उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई! भावों में माधुर्य का कहीं नाम नहीं। भूँगी बहुत दिनों से इस घर में नौकर थी। स्वभाव की सहनशील थी, पर यह आठों पहर की बकबक उससे भी न सही गई। एक दिन उसने भी घर की राह ली, यहाँ तक कि जिस बच्ची को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई। बात-बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती। रुक्मिणी रोई हुई बालिका को गोद में बैठा लेती और चुमकार-दुलार कर चुप करातीं। उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था।

निर्मला को अब अगर कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बात करना था। वह वहाँ जाने का अवसर खोजती रहती थी। बच्ची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी। पहले जब बच्ची को अपने घर सभी चीजें खाने को मिलती थीं, तो वह वहाँ जाकर हँसती-खेलती थी। अब वहीं जाकर उसे भूख लगती थी। निर्मला उसे घूर-घूरकर देखती, मुट्ठियाँ बाँधकर धमकाती, पर लड़की भूख की रट लगाना न छोड़ती थी। इसलिए निर्मला उसे साथ न ले जाती थी। सुधा के पास बैठकर उसे मालूम होता था कि मैं आदमी हूँ। उतनी देर के लिए वह चिंताओं से मुक्त हो जाती थी। जैसे शराबी शराब के नशे में सारी चिंताएँ भूल जाता है, उसी तरह निर्मला सुधा के घर जाकर सारी बातें भूल जाती थी। जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहाँ देखकर चकित रह जाता। वही कर्कशा, कटुभाषिणी स्त्री यहाँ आकर हास्यविनोद और माधुर्य की पुतली बन जाती थी। यौवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर का रास्ता बंद पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं। यहाँ आते वक्त वह माँग-चोटी, कपड़े-लत्ते से लैस