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होकर आती और यथासाध्य अपनी विपत्ति कथा को मन ही में रखती थी। वह यहाँ रोने के लिए नहीं, हँसने के लिए आती थी।

पर कदाचित् उसके भाग्य में यह सुख भी नहीं बदा था। निर्मला मामूली तौर से दोपहर को या तीसरे पहर से सुधा के घर जाया करती थी। एक दिन उसका जी इतना ऊबा कि सबेरे ही जा पहुँची। सुधा नदी स्नान करने गई थी, डॉक्टर साहब अस्पताल जाने के लिए कपड़े पहन रहे थे। महरी अपने काम-धंधे में लगी हुई थी। निर्मला अपनी सहेली के कमरे में जाकर निश्चिंत बैठ गई। उसने समझा-सुधा कोई काम कर रही होगी, अभी आती होगी। जब बैठे दो-तीन मिनट गुजर गए तो उसने अलमारी से तसवीरों की एक किताब उतार ली और केश खोल पलंग पर लेटकर चित्र देखने लगी। इसी बीच में डॉक्टर साहब को किसी जरूरत से निर्मला के कमरे में आना पड़ा। अपनी ऐनक ढूँढ़ते फिरते थे। बेधड़क अंदर चले आए। निर्मला द्वार की ओर केश खोले लेटी हुई थी। डॉक्टर साहब को देखते ही चौंककर उठ बैठी और सिर ढकती हुई चारपाई से उतरकर खड़ी हो गई। डॉक्टर साहब ने लौटते हुए चिक के पास खड़े होकर कहा—क्षमा करना निर्मला, मुझे मालूम न था कि यहाँ हो! मेरी ऐनक मेरे कमरे में नहीं मिल रही है, न जाने कहाँ उतार कर रख दी थी। मैंने समझा शायद यहाँ हो।

निर्मला ने चारपाई के सिरहाने आले पर निगाह डाली तो ऐनक की डिबिया दिखाई दी। उसने आगे बढ़कर डिबिया उतार ली और सिर झुकाए, देह समेटे, संकोच से डॉक्टर साहब की ओर हाथ बढ़ाया। डॉक्टर साहब ने निर्मला को दो-एक बार पहले भी देखा था, पर इस समय के-से भाव कभी उनकेमन में न आए थे। जिस ज्वाला को वह बरसों से हृदय में दबाए हुए थे, वह आज पवन का झोंका पाकर दहक उठी। उन्होंने ऐनक लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो हाथ काँप रहा था। ऐनक लेकर भी वह बाहर न गए, वहीं खोए हुए-से खड़े रहे। निर्मला ने इस एकांत से भयभीत होकर पूछा-सुधा कहीं गई है क्या?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया–हाँ, जरा स्नान करने चली गई हैं।

फिर भी डॉक्टर साहब बाहर न गए। वहीं खड़े रहे। निर्मला ने फिर पूछा-कब तक आएगी?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए कहा-आती होंगी।

फिर भी वह बाहर नहीं आए। उनके मन में घोर द्वंद्व मचा हुआ था। औचित्य का बंधन नहीं, भीरुता का कच्चा धागा उनकी जबान को रोके हुए था। निर्मला ने फिर कहा-कहीं घूमने-घामने लगी होंगी। मैं भी इस वक्त जाती हूँ।

भीरुता का कच्चा धागा भी टूट गया। नदी के कगार पर पहुँच कर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है। डॉक्टर साहब ने सिर उठाकर निर्मला को देखा और अनुराग में डूबे हुए स्वर में बोले–नहीं, निर्मला, अब आती ही होंगी। अभी न जाओ। रोज सुधा की खातिर से बैठती हो, आज मेरी खातिर से बैठो। बताओ, कब तक इस आग में जला करूँ? सत्य कहता हूँ निर्मला...।

निर्मला ने कुछ और नहीं सुना। उसे ऐसा जान पड़ा मानो सारी पृथ्वी चक्कर खा रही है। मानो उसके प्राणों पर सहस्रों वज्रों का आघात हो रहा है। उसने जल्दी से अलगनी पर लटकी हुई चादर उतार ली और बिना मुँह से एक शब्द निकाले कमरे से निकल गई। डॉक्टर साहब खिसियाए हुए-से रोना मुँह बनाए खड़े रहे! उसको रोकने की या कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।

निर्मला ज्योंही द्वार पर पहुँची उसने सुधा को ताँगे से उतरते देखा। सुधा उसे देखते ही जल्दी से उतरकर उसकी ओर लपकी और कुछ पूछना चाहती थी, मगर निर्मला ने उसे अवसर न दिया, तीर की तरह झपटकर चली। सुधा एक क्षण तक विस्मय की दशा में खड़ी रही। बात क्या है, उसकी समझ में कुछ न आ सका। वह व्यग्र हो उठी। जल्दी से अंदर गई, महरी से पूछने कि क्या बात हुई है। वह अपराधी का पता लगाएगी और अगर उसे मालूम हुआ