पृष्ठ:निर्मला.pdf/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सुधा–खाओ मेरी कसम।

निर्मला-तुम तो नाहक ही जिद करती हो।

सुधा–अगर तुमने न बताया निर्मला, तो मैं समझूँगी, तुम्हें जरा भी प्रेम नहीं है। बस, सब जबानी जमा-खर्च है। मैं तुमसे किसी बात का परदा नहीं रखती और तुम मुझे गैर समझती हो। तुम्हारे ऊपर मुझे बड़ा भरोसा था। अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता।

सुधा की आँखें सजल हो गईं। उसने बच्ची को गोद से उतार लिया और द्वार की ओर चली। निर्मला ने उठकर उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली-सुधा, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, मत पूछो। सुनकर दुःख होगा और शायद मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखा सकूँ। मैं अभागिनी न होती, तो यह दिन ही क्यों देखती? अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि संसार से मुझे उठा ले। अभी यह दुर्गति हो रही है, तो आगे न जाने क्या होगा?

इन शब्दों में जो संकेत था, वह बुद्धिमती सुधा से छिपा न रह सका। वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की है। उनका हिचक-हिचककर बातें करना और उसके प्रश्नों को टालना, उनकी वह ग्लानिमय, कांतिहीन मुद्रा उसे याद आ गई। वह सिर से पाँव तक काँप उठी और बिना कुछ कहे-सुने सिंहनी की भाँति क्रोध से भरी हुई द्वार की ओर चली। निर्मला ने उसे रोकना चाहा, पर न पा सकी। देखते-देखते वह सड़क पर आ गई और घर की ओर चली। तब निर्मला वहीं भूमि पर बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी।

25.

निर्मला दिन भर चारपाई पर पड़ी रही। मालूम होता है, उसकी देह में प्राण नहीं है।

न स्नान किया, न भोजन करने उठी। संध्या समय उसे ज्वर हो आया। रात भर देह तवे की भाँति तपती रही। दूसरे दिन ज्वर न उतरा। हाँ, कुछ-कुछ कम हो गया था। वह चारपाई पर लेटी हुई निश्चल नेत्रों से द्वार की ओर ताक रही थी। चारों ओर शून्य था, अंदर भी शून्य, बाहर भी शून्य। कोई चिंता न थी, न कोई स्मृति, न कोई दुःख, मस्तिष्क में स्पंदन की शक्ति ही न रही थी।

सहसा रुक्मिणी बच्ची को गोद में लिए हुए आकर खड़ी हो गई।

निर्मला ने पूछा-क्या यह बहुत रोती थी?

रुक्मिणी-नहीं, यह तो सिसकी तक नहीं। रात भर चुपचाप पड़ी रही। सुधा ने थोड़ा सा दूध भेज दिया था।

निर्मला—अहीरिन दूध न दे गई थी?

रुक्मिणी–कहती थी, पिछले पैसे दे दो तो दूँ। तुम्हारा जी अब कैसा है?

निर्मला-मुझे कुछ नहीं हुआ है? कल देह गरम हो गई थी।

रुक्मिणी-डॉक्टर साहब का बुरा हाल है?

निर्मला ने घबराकर पूछा-क्या हुआ, क्या? कुशल से हैं न?

रुक्मिणी-कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है! कोई कहता है, जहर खा लिया था, कोई कहता है, दिल का चलना बंद हो गया था। भगवान् जाने क्या हुआ था!

निर्मला ने एक ठंडी साँस ली और रुंधे हुए कंठ से बोली-हाय भगवान्! सुधा की क्या गति होगी! कैसे जिएगी?

यह कहते-कहते वह रो पड़ी और बड़ी देर तक सिसकती रही। तब बड़ी मुश्किल से उठकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई। पाँव थर-थर काँप रहे थे, दीवार थामे खड़ी थी, पर जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहाँ से जाकर पति से क्या कहा? मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं, न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय! ऐसे